Tuesday, December 16, 2008
आतंकवाद, आईएसआई और राजनीति
26 नवंबर को मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद आतंकवाद और जनसंहार के हथियारों पर अमेरिकी आयोग की एक रिपोर्ट आयी। 'वर्ल्ड एट रिस्क' नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया कि आतंकवाद की सभी सड़कें पाकिस्तान में एक-दूसरे से मिलती हैं। भारत ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देश ऐसा ही सोचते हैं। खुद पाकिस्तान का दोस्त अमेरिका भी यही सोचता है। वहीं के सीनेटर जॉन केरी ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा कि आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने पर पाकिस्तान को मिलने वाली तमाम अमेरिकी आर्थिक और सैन्य मदद पर अंकुश लगा दिया जाएगा। उनका यह भी कहना था कि इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि मुंबई में आतंकी घटना को अंजाम देने के लिए हमलावर पाकिस्तान से ही आये थे। लेकिन क्या कैरी की इस चेतावनी का पाकिस्तान पर कोई असर पड़ेगा ? इस तरह के बयान भारत आकर अमेरिकी मंत्री और सीनेटर पहले भी देते रहे हैं। लेकिन होता क्या है...पूरी दुनिया को पता है। अमेरिका के पूर्व मंत्री कोलिन पावेल ने सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान ने हमें लश्कर के सफाए का आश्वासन दिया था, लेकिन वह वादा निभा नहीं सका। यानी अमेरिका को भी पाकिस्तान के वादे की हकीकत पता है। 26/11 के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में काफी खटास आई है। लेकिन इस सवाल का जवाब भी खोजना होगा कि क्या पाकिस्तानी हुकूमत आतंकी संगठनों की नकेल कस पाएगी? हाल ही में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने एक इंटरव्यू में कहा कि आतंकी संगठनों के पहले आईएसआई से संबंध थे...अब नहीं हैं। पहली बार किसी पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने माना कि आईएसआई के आतंकी संगठनों से संबंध रहे हैं। पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था में सेना की भूमिका अहम है। सेना की दो खुफिया एजेंसियां आईएसआई और एमआई पाकिस्तान की व्यवस्था के भीतर एक व्यवस्था हैं। इनमें सेना के अफसर तैनात रहते हैं और उन पर सेनाध्यक्ष का सीधे नियंत्रण रहता है। पाकिस्तान में सत्ता का ढ़ाचा कुछ इस तरह है कि अगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों हाथ मिलाकर एक तरफ भी हो जाएं, तो भी सेनाध्यक्ष अपनी चलाता है और अगर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच न बनती हो, फिर तो बिल्लियों के झगड़े में सेनाध्यक्ष बंदर की भूमिका में रहता है। पाकिस्तान में सब बोल रहे हैं। राष्ट्रपति जरदारी बोल रहे हैं...प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी बोल रहे हैं...आतंकी संगठनों के मुखिया बोल रहे हैं...सिर्फ एक आदमी नहीं बोल रहा है और वो हैं पाक आर्मी चीफ कियानी। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष की खामोशी का हमेशा गहरा मतलब होता है। आखिर इतने डेवलपमेंट के बावजूद कियानी खामोश क्यों हैं? उनके दिमाग में क्या चल रहा है? वो आईएसआई के भी चीफ रहे हैं...यानी उनकी पकड़ आईएसआई पर काफी मजबूत होगी ? और आईएसआई के आतंकी संगठनों से रिश्ते की बात तो जगजाहिर है। खुद आईएसआई और पाक सेना के रिटायर्ड अफसर आतंकी संगठनों के कैंपो में नौजवानों को आतंक की ट्रेनिंग देते हैं। पूरी दुनिया को पता है कि पाकिस्तान के भीतर कहां और कितने आतंकि ट्रेनिंग कैंप चल रहे हैं। भारत के 26/11 के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तैयबा यानी जमात-उद-दावा पर प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध का मतलब साफ है कि दुनिया ने भारत के इस तर्क पर अपनी मुहर लगा दी कि जमात-उद-दावा और लश्कर -ए-तैयबा की जड़ें दो नहीं बल्कि एक ही हैं। लेकिन अब पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के दबाव में झुकते हुए दावा के खिलाफ कार्रवाई का नाटक कर रहा है। इसके तहत इसके सभी दफ्तरों को सील किया जाना था। इसके खातों को सील किया जाना था और आतंकी करार दिए व्यक्तियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया जाना था। उनकी यात्रा, हथियार व धन जुटाने और मंसूबों को अमलीजामा पहनाने की क्षमता सीमित करनी थी...यानी उनके पर पूरी तरह से कतरने थे। लेकिन दिखाने के लिए कुछ गिरफ्तारियां हुईं...कुछ दफ्तर सील हुए...अब गिरफ्तार लोगों के छूटने का सिलसिला भी साथ ही शुरू हो गया है। अगर अंतर्राष्ट्रीय दबाव में कुछ कड़े कदम उठाए भी गए तो ये आतंकी संगठन अपना नाम और चोला बदल कर वहां काम करते रहेंगे...क्योंकि उन्हें एक ऐसी व्यवस्था से समर्थन मिल रहा है जिसपर वहां किसी लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी गई सरकार का कोई बस नहीं चलता। लश्कर पर प्रतिबंध लगा तो जमात-उद-दावा बना और इस पर प्रतिबंध लगा तो नाम बदलकर किसी और संगठन के रुप में लश्कर पाकिस्तान की जमीन से आतंक की फसल तैयार करता रहेगा। लश्कर पर ये कोई पहली बार प्रतिबंध नहीं लगा है। 2001, 2002 और 2005 में प्रतिबंध लग चुके हैं...लेकिन इसके लोग अपना काम पहले की तरह ही कर रहे हैं।पड़ोस में तैयार हो रही आतंक की फसल को नष्ट करने के लिए तो इसकी जड़ों में मट्ठा डालना होगा। आईएसआई के आतंकी संगठनों से रिश्तों को हमेशा के लिए खत्म करना होगा। इसके आतंकी संगठनों से रिश्ते को उजागर करना होगा। आईएसआई के स्थाई रुप से पर कतरने होंगे। ये सिर्फ भारत को नहीं पूरी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को करना होगा...नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब उनके घर भी आतंक की आग के लपेटे में होंगे। क्योंकि आतंक का न तो कोई मजहब होता है और न ही दीवार।
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