Tuesday, April 13, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-2)
भारत के अलग-अलग हिस्सों में पनपे लालगढ़ एक दिन में नहीं बने हैं। इसके लिए कोई एक शख्स भी जिम्मेदार नहीं है। 2007 जनवरी के बाद आतंक की आग में जितने लोग मारे गए उसके करीब तीन गुना से अधिक देश के भीतर पैदा हुए इस ‘सामाजिक आतंकवाद’ में मारे गए हैं। नक्सलवाद को सामाजिक आतंकवाद कहना ज्यादा ठीक रहेगा। क्योंकि यह समाज के भीतर और वर्तमान व्यवस्था के गर्भ से पैदा हुआ है। नक्सलवाद आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के अंतविरोध की कहानी है। यह विकास और प्रशासन की गैर-मौजूदगी के कारण उपजी समस्या है। इस नासूर के लिए देश के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों का काम सिर्फ वोट मांगना और सरकार बनाना ही नहीं हैं बल्कि जनता से जुड़ने का भी काम उन्हीं का है। लालगढ़ पैदा होने का मतलब है कहीं न कहीं उस इलाके में राजनीतिक शून्यता थी। वहां के लोगों का दुख-दर्द सुननेवाला कोई नहीं थी। वहां का आदमी मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था। इसी राजनीति शून्यता, सरकारी अमले की अकर्मण्यता ने दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्था के भीतर नक्सलियों के लिए जगह बनाया। नक्सलियों का दर्शन आम आदमी या कहें जनता को आगे कर पीछे से हिंसा की रणनीति के सहारे आगे बढ़ रहा है। नक्सली हाथों में बंदूक लेकर कितने गरीबों को उनका हक दिलवा चुके हैं? नक्सलियों के लालगढ़ में आधुनिक विकास की हवा कितनी पहुंची है? व्यवस्था के भीतर पैदा हुई इस नई व्यवस्था ने कितने लोगों को दो वक्त की रोटी दी है। कितने लोगों को स्कूल और कॉलेज भेजा है? नक्सली दर्शन की वकालत करनेवाले अक्सर यही तर्क देते हैं कि उन इलाकों में जा कर देखिए आम आदमी की क्या हालत है। ये सच है कि हमारी व्यवस्था ने उन इलाकों के विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया...जितना शहरी इलाकों पर। जिससे विकास की ताजी हवा वहां तक पहुंच सके… लेकिन उस इलाके में रहनेवाले लोग या कहें शहरी इलाकों से ताजी हवा खाकर पहुंचे लोगों ने वहां के लोगों को क्या दिया? बंदूक का दर्शन। मरने और मारने की शिक्षा। दो वक्त की रोटी और सत्ता में भागीदारी का सपना। ये सच है कि दो वक्त की रोटी किसी भूखे के लिए उसकी पहली जरुरत है। लेकिन दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकना और अपने दर्शन को हकीकत में बदलने का सपना देखना कहां कि इंसानियत है। सुरक्षाबलों के जवानों का मारा जाना पूरे देश ने जाना क्योंकि वो एक कानूनी व्यवस्था का हिंसा थे। जिसे समाज मानता है। उनके परिवारवालों के दुख-दर्द में पूरा देश रोया क्योंकि वो सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए नहीं बल्कि देश के भीतर पैदा हुए सामाजिक आतंकवाद के खात्मे के लिए गए थे। इस लड़ाई में माओवादी लड़ाके भी मारे जाते हैं और आम आदमी भी। लेकिन किसकी कौन कितनी ख़बर लेता है ये लालगढ़ में रहनेवाला आम आदमी अच्छी तरह से जानता है। सामाजिक आतंक के इन गढ़ों में रहनेवाले ज्यादातर लोग किसी शौक से या किसी दर्शन की वजह से नक्सलियों को समर्थन नहीं देते बल्कि उनकी मजबूरी है। इन इलाकों में नक्सलियों के विरोध का मतलब एक तरह से राज्य का विरोध है क्योंकि इन इलाकों में नक्सली समानांतर सरकार चलाने का दावा करते हैं। जन अदालतों के माध्यम से फैसले करते हैं...और हमदर्दी को लिए थोड़ा बहुत लोगों के साथ भी खड़े रहते हैं। लेकिन, देश के पिछड़े इलाकों के लोगों को ये दर्शन और बंदूक की राजनीति कितनी आगे ले जाएगी? क्या वगैर बंदूक के क्रांति संभव नहीं है? क्या सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बंदूक ही सबसे असरदार तरीका है? ये सच है कि दिल्ली ऊंची सुनती है। लेकिन गोलियों की आवाज़ भी सुनेगी ये जरुरी नहीं। दिल्ली तक अगर अपनी बात पहुंचानी है तो नक्सली नेताओं को बंदूक नहीं वार्ता का रास्ता चुनना चाहिए।
Monday, April 12, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-1)
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए देश के सबसे बड़े नक्सली हमले ने माओवादियों की कार्यशैली और उनकी क्रांतिकारी सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ ने अपने 76 जवानों को खोया। ऐसे जवान जो अपनी रोजी-रोटी या कहें देश सेवा के लिए सीआरपीएफ में शामिल हुए। ये जवान भी कमोवेश वैसी ही पृष्ठभूमि से आते हैं जैसी पृष्ठभूमि से माओवादियों के लड़ाके आते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों में कोई ख़ास अंतर आपको नहीं दिखेगा। फिर इन जवानों की हत्या का क्या मतलब है? कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा “ये माओवादी हैं जिन्होंने राज्य को दुश्मन और संघर्ष को युद्ध का नाम दिया है। हमने इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।” चिदंबरम साहब ने जब दंतेवाड़ा हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की तो एक सुर में आवाज आई कि ये वक्त इस्तीफा देने का नहीं संघर्ष करने का है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नक्सली समस्या को सबसे बड़ी चुनौती बता चुके हैं। अगर मोटे पर देखा जाए तो हिंदुस्तान के 630 जिलों में से 180 नक्सलियों के शिकंजे में हैं। हिंदुस्तान में कई लालगढ़ तैयार हो चुके हैं। सबसे पहले बात छत्तीसगढ़ की। यहां के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, राजनांदगांव आदि के करीब 2300 से अधिक गांवों पर नक्सलियों का प्रभाव है। बस्तर में 300 गांव ऐसे हैं जहां कुछ वर्षों से न तो कोई पुलिस अधिकारी गया और न हीं प्रशासन का। यहां के तेरह हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत नक्सली चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ का अबूझमाढ़ इलाका इनका सबसे सुरक्षित ठिकाना है। करीब चार हज़ार किलोमीटर में फैला ये इलाका सुरक्षाबलों के लिए चक्रव्यूह की तरह है। इसके भीतर की स्थिति ये है कि यहां के 50 गांवों का अब तक कोई सर्वे नहीं हुआ है। 10 साल से इलाके में पुलिस के जवानों ने कदम तक नहीं रखा है। यहां सैकड़ों पुलिसवाले नक्सलियों की गोलियों का शिकार हुए हैं। आलम यह है कि कई थाना क्षेत्रों में नक्सलियों से बचने के लिए पुलिस के जवान सिविल ड्रेस में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बाद उससे सटे झारखंड का नंबर आता है। यहां के 24 में से 18 जिलों में नक्सलियों का दबदबा है। यहां तक की राजधानी रांची पर भी नक्सलियों का प्रभाव है। इस इलाके में नक्सलियों के मुख्य कमांडर हैं गणपति और किसन। वेंकटेश्वर राव उर्फ किसन और गणपति नक्सलियों की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। आंध्र प्रदेश का रहनेवाल किसन फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है। साथ ही दूसरी भाषाओं मसलन हिंदी, बांग्ला, उड़िया सहित कई भाषाओं का जानकार है। मीडिया से बातचीत भी अक्सर किसन ही करता है। वहीं, बांगाल का रहनेवाला गणपति क्षेत्र विस्तार, भविष्य की योजनाएं तैयार करना, दूसरे राज्यों के नक्सलियों से संपर्क और ऑपरेशन का आइडिया देने का काम करता है। आंधप्रदेश के करीमनगर, वारंगल, नालमला, पालनाडु और उत्तरी तेलंगाना में लाल आतंक पसरा हुआ है। वहीं, उड़ीसा से लगती सीमा पर इनकी गतिविधियां और प्रभाव काफी अधिक हैं। उड़ीसा के 17 जिले नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित हैं। महाराष्ट्र में भी एक अनुमान के मुताबिक 15 से 29 तक गुरिल्ला संगठन सक्रिय हैं। बिहार के 38 में से 34 जिलों में नक्सलियों का कम-ज्यादा असर है। करीब 150 प्रखंडों में उनकी जन अदालतें लगती हैं। बिहार के माओवादियों के नेपाली माओवादियों से रिश्तों के सबूत मिले हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुड़ा के करीब 350 गांव लाल आतंक की चपेट में हैं। कई गांवों में तो पुलिस का पहुंचना तक मुश्किल है। यूपी के सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जिले के करीब 600 गांवों पर नक्सलियों का साया है। अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो बालाघाट क्षेत्र के करीब तीन हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 100 गांवों में लाल झंडा दिखाई देता है। देश के भीतर न जाने ऐसे कितने और लालगढ़ बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। इन इलाकों में नक्सली अपनी हुकूमत चलाते हैं। अपनी अदालत लगाते हैं। फटाफट सबके सामने फैसले करते हैं। वहां रहनेवाले लोगों के मन में राज्य के खिलाफ जहर भरते हैं। सरकार से लोहा लेने के लिए लड़ाकों की भर्ती करते हैं और उनका तनख्वाह भी देते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर ये दूसरी हिंसक व्यवस्था को जगह कैसे मिली? लोकतंत्र दुनिया के सबसे अधिका शासन प्रणाली इसलिए माना जाता हैं क्योंकि इसमें समाज के सबसे कमजोर आदमी का भी पक्ष लिया जाता है। उसकी सरकार बनाने में भागीदारी होती है। लेकिन बंदूक और गोलियों के बल पर हिंदुस्तान में पैदा हो रहे लालगढ़ को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।
Wednesday, April 7, 2010
ड्रामा अच्छा था...मजा आया !
करीब हफ्ते भर चले तमाशे ने मेरा जम कर मनोरंजन किया। मजा आ गया...लेकिन इस ड्रामे का आपने कितना मजा लिया? जी हां, शोएब मलिक-आएशा सिद्दीकी और सानिया का ड्रामा। शोएब पाकिस्तानी क्रिकेटर है और सानिया मिर्जा भारतीय टेनिस खिलाड़ी। आएशा सिद्दीकी हैदराबाद की एक लड़की। नाटक का पहला दृश्य शुरू होता है सानिया और शोएब के निकाह की ख़बर के साथ। न्यूज़ चैनलों पर दोनों के निकाह की ख़बर...कोई इन ख़बरों की पुष्टि के लिए तैयार नहीं। भारतीय न्यूज़ चैनल पाकिस्तानी चैनलों की ख़बरों पर नज़रें बनाए हुए थे...और भारतीय चैनल पाकिस्तानी चैनलों पर। दोनों देशों के संवाददाता ख़बरों को मामा-चाचा, जीजा-साला, पास-पड़ोस के सहारे आगे बढ़ा रहे थे। अगले दिन सानिया मिर्जा ने हैदराबाद में मिठाई बांटकर पत्रकारों से शोएब मलिक के साथ निकाह का ऐलान कर दिया। इसके बाद पाकिस्तान के सियालकोट यानी शोएब के पुस्तैनी घर के बाहर जमकर जश्न दिखा...वैसा ही जश्न जैसा शादियों में दिखता है...क्रिकेट और टेनिस के मिलन को लेकर प्रतिक्रिया लेने और देने का काम तेजी से शुरू हो गया। पाकिस्तान के बड़े अख़बार ने शोएब मलिक की मां के हवाले से लिखा कि सानिया के छोटे कपड़े उनकी सास यानी शोएब की अम्मा को पसंद नहीं हैं। वो नहीं चाहतीं कि शादी के बाद सानिया टेनिस खेले। पाकिस्तान टेनिस एशोसिएशन के एक बड़े अधिकारी ने कहा कि सानिया को अब पाकिस्तान की तरफ से खेलना चाहिए...वहीं के एक और अधिकारी ने उन्हें कोच बनाने का मशवरा दिया। यहां तक की उनके लिए एक पाकिस्तानी टेनिस पार्टनर का नाम भी सामने आ गया। जंग आर-पार की हो गई। सानिया भारत की या पाकिस्तान की। किस तरफ से खेलेंगी सानिया। उनकी कैंप पर तिरंगा होगा या चांद सितारा? सब अपनी-अपनी दलील दे रहे थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इसे भारत-पाक रिश्तों में एक नए अध्याय के रुप में देख रहे थे। इधर भारतीय राजनीतिक पार्टियां भी अपनी-अपनी राय दे रही थीं। कोई ये तर्क दे रहा था कि जब एक पाकिस्तानी से शादी कर लिया तो ऐसे में वो टेनिस में भारत का नेतृत्व कैसे कर सकती हैं? सानिया पर आर-पार की जंग चल ही रही थी कि अचानक आएशा सिद्दीकी ने एंट्री ले ली। हैदराबाद की रहनेवाली आएशा ने दावा किया की शोएब से उनका निकाह कई साल पहले हो चुका है...उनके पास सबूत भी हैं। कहानी में एकाएक नया मोड़...अब सानिया-शोएब और ‘वो’ की बात होने लगी। शोएब के पुराने बयान खोजे जाने लगे...पता चला शोएब ने कई साल पहले ही खुद को हैदराबाद का दामाद बताया था...लेकिन किसी का नाम नहीं लिया। न्यूज़ चैनलों ने अपने तेज-तर्रार रिपोर्टरों को हैदराबाद भेजा...शोएब और आएशा के रिश्तों का पोस्टमार्टम शुरू हो गया। इसी बीच शोएब के मुंह से आएशा का नाम भी एक पुराने इंटरव्यू में निकल आया। आएशा के परिवारवाले चीख-चीख कर कहने लगे उनके साथ धोखा हुआ है। शोएब ने उनकी बेटी को धोखा दिया है। उधर, शोएब के रिश्तेदारों ने ऐसे किसी भी निकाह से साफ इनकार कर दिया। इसी बीच आएशा और शोएब की शादी का निकाहनामा भी न्यूज़ चैनलों पर आ गया...दोनों देशों के मुस्लिम विद्वान निकाहनामे का मतलब और आगे की रणनीति बताने लगे। इसी बीच सानिया और शोएब की शादी की तारीख का भी ऐलान हो गया। मामला कोर्ट-कचहरी में ले जाने की बात चलने लगी। सिद्दीकी दंपत्ति के साथ-साथ अब आएशा भी फोन पर न्यूज़ चैनलों के माध्यम से अपनी बात रखने लगीं। हर गली-मुहल्ले में कौन सच्चा...कौन झूठा को लेकर बाज़ार गर्म हो गया। कुछ लोग ये भी कहते नज़र आए कि ऐसे में सानिया पर क्या बीत रही होगी? इसी बीच शोएब मलिक सीधे दुबई से हैदराबाद या कहें अपनी होनेवाली ससुराल पहुंचते हैं। घर में क्या बातें होती हैं? किसी को पता नहीं। न्यूज़ चैनलों के कैमरे वगैर पलक झपकाए शोएब और सानिया के घर के भीतर की तस्वीरें कैद करने के लिए चौकस थे। पहली ख़ास तस्वीर बालकनी की कैद होती है जिसमें सानिया कुछ नाराज़ सी दिखती हैं...उनकी मां उन्हें कुछ समझाने की कोशिश करती हैं...बगल में शोएब खड़े हैं। ये तस्वीर घर के भीतर तनाव की थ्योरी देती है। शाम में कमरे का दरवाजा थोड़ा सा खुलता है और फिर बंद हो जाता है। इसमें शोएब और सानिया दिखते हैं...मतलब निकाला जाता है कि दोनों डांस कर रहे हैं। घर के भीतर शादी का जश्न मनाया जा रहा है। न्यूज़ चैनलों के रिपोर्टर अपनी-अपनी सेटिंग के हिसाब के ख़बरें निकाल रहे हैं...और दोनों देशों की जनता तक हैदराबाद में चल रही हर हलचल की ख़बर पहुंच रही है। अगले दिन शोएब और सानिया पहली बार मीडिया के सामने एक साथ सीना ताने आते हैं और कहते हैं- आएशा झूठी है...कोई निकाह नहीं हुआ...अगर वो सच्ची है तो सामने क्यों नहीं आती? सानिया ने भी कहा- मैं जानती हूं..सच क्या है। ये बात आएशा के परिवारवालों को हज़म नहीं हुई। पुलिस में केस दर्ज करवा दिया गया...शोएब का पासपोर्ट पुलिस ने जब्त कर लिया। इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की गिरफ्तारी की बातें होने लगी। आएशा ने भी सबूत के तौर पर पुलिस को शोएब के कपड़े, फोटो, सीडी और न जाने क्या-क्या दिया। दोनों के साथ होटल में ठहरने और गर्भपात की बातें भी सामने आने लगीं। उधर, शोएब और सानिया की शादी होगी या नहीं इस पर करोड़ों का सट्टा लग गया। सानिया निकाह के वक्त गरारा पहनेंगी या शरारा इस पर पैसे लगने लगे। ये नाटक इतना हिट था की टीवी चैनलों पर देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला भी हाशिए पर जाता दिखा...लेकिन ख़बर दिखानी मजबूरी थी क्योंकि 76 जवान शहीद हुए थे। इससे पहले देश ने इतना बड़ा नक्सली हमला पहले नहीं देखा था। अगले दिन, एकाएक ख़बर आई थी शोएब मलिक ने महा आएशा सिद्दीकी को तलाक दे दिया है। यानी उस महा सिद्दीकी को जिसे वो आपा कहते थे...जिसके साथ शादी की बात से मुकर रहे थे। उसे तलाक दे दिया और मुआवजा भी देने का ऐलान कर दिया। ये खेल हुआ दोनों ओर के मध्यस्थों की वजह से। एक मध्यस्थ ने तो यहां तक कहा कि आएशा हमारी बच्ची है हम उसके लिए अच्छा लड़का देख कर शादी कर देंगे। दूसरे मध्यस्थ ने कहा कि शोएब पर दबाव डाल कर तलाक के लिए जैसे-तैसे राजी करवाया गया। सबको अपनी वाह-वाही लुटनी है। इस बीच एक और ख़बर निकली की शोएब और सानिया का निकाह तो पहले ही दुबई में हो चुका है...अब तो बस औपचारिकता बाकी है। 15 अप्रैल को भोज-भात होगा। रिश्तों का पोस्टमार्टम करनेवाले रिपोर्टर अब 15 अप्रैल को बनने वाले पकवानों पर रिसर्च कर रहे हैं। कुछ दूल्हा-दुल्हन की पोशाक पर रिसर्च कर रहे हैं। आएशा खुश की तलाक मिल गया...शोएब खुश की फंसते-फंसते बचे...सानिया खुश की कोई मिल गया...आप भी खुश क्योंकि बिना टिकट का मनोरंजन हुआ। ऑल इज वेल।
Saturday, December 12, 2009
जाने क्यों बनते हैं आतंकी ?
मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर लोग कैसे आतंक और जेहाद का रास्ता पकड़ लेते हैं ? उन्हें पता नहीं होता की इसका अंजाम क्या होगा ? ऐसा लगता था कि गरीबी की वजह से लोग आतंक का दामन थामते हैं। हाल ही में एक ख़बर सुर्खियों में आयी की पाकिस्तान के बहावलपुर में एक लाख रुपये के लिए नौजवान आत्मघाती दस्ता बनने को तैयार हैं...और वहां उनकी भर्ती चल रही है। इस बात में कितना दम है ये तो कहना मुश्किल है लेकिन ये पूरी सच्चाई नहीं है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले में पकड़े गए जिंदा आतंकी कसाब के बारे में तो ये तर्क फिट बैठता है...लेकिन अमेरिका में गिरफ्तार हेडली और राणा के बारे में नहीं। माना की कसाब गरीब था और गरीबी की वजह से आतंकी संगठनों से जा मिला लेकिन हेडली और राणा गरीब नहीं थे। वे अच्छे परिवारों से आते हैं...और पढ़े-लिखे भी हैं, फिर इन दोनों ने आतंक का रास्ता क्यों अपनाया ? हाल ही में पाकिस्तान में पांच अमेरिकी नागरिकों को पकड़ा गया हैं। ये सभी अल-कायदा से जुड़े आतंकी संगठनों में शामिल होने के लिए तालिबान के गढ़ पश्चिमोत्तर इलाके में जाने की फिराक में थे। पाकिस्तानी अखबारों में आ रही मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ये पांचों लोग पाकिस्तान के संवेदनशील संस्थानों पर हमले की योजना बना रहे थे। इन सभी के पास से लैपटॉप, नक्शे और ऐसे वीडियो मिले हैं, जो यह बताते हैं कि वे अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना से लड़ने के लिए आतंकी समूहों में शामिल होना चाहते थे। इन्हें क्या कहेंगे ! गरीबी की मार से त्रस्त नौजवानों ने आतंक का रास्ता चुना या फिर कुछ और ? सबसे बड़ी बात इतने पढ़े लिखे नौजवान आखिर इस रास्ते को क्यों चुनते हैं ? कहीं इसकी वजह सुर्खियां तो नहीं...। सुर्खियां ही तो वह चीज है, जिसके लिए आतंकी मरते रहते हैं। सुर्खियों में नाम और टेलीविजन पर बिना रुके लगातार ख़बरें। इसीलिए तो 9/11 उनकी इतनी बड़ी सफलता थी। इसीलिए बाली में 12/10, लंदन में 7/7, मुंबई में 26/11 के धमाके इतना असर छोड़ गए। तो आप कहेंगे पाकिस्तानी शहरों में हर दिन हो रहे धमाकों का क्या मतलब है?
ये आईएसआई के लिए सीधा संदेश हैं कि जब तक पाकिस्तान अरबों डॉलर की एवज में अमेरिकी सेना के लिए किराए के टट्टू की तरह काम करता रहेगा, तब तक उसे चैन से जीने नहीं देगे। सुर्खियों ने 26/11 आतंकी हमले में पकड़े गए जिंदा आतंकी कसाब को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चलनेवाले आतंकी कैंपो में हीरो बना दिया और उसके मारे उसके साथियों को शहीद। जिस अमेरिका ने रुस को हराने के लिए तालिबान का सहारा लिया...उसी के लड़ाकों ने अमेरिका को 9/11 दिया। जिसके जख्म अभी भी नहीं धुले हैं। पाकिस्तान से भेजे गए जो आतंकी कल तक कश्मीर में उत्पात मचा रहे थे...वे अब अपने ही घर में रोज खून की होली और बमों से दीवाली मना रहे हैं...और अब पढ़े-लिखे अमेरिकियों के जेहाद में शामिल होने की ख़बरों ने ओबामा प्रशासन के होश उड़ा दिए हैं। लेकिन, लाख टके का सवाल ये है कि इतने पढ़े लिखे और अच्छे घरों के लड़के इस राह पर क्यों चल रहे हैं ?
ये आईएसआई के लिए सीधा संदेश हैं कि जब तक पाकिस्तान अरबों डॉलर की एवज में अमेरिकी सेना के लिए किराए के टट्टू की तरह काम करता रहेगा, तब तक उसे चैन से जीने नहीं देगे। सुर्खियों ने 26/11 आतंकी हमले में पकड़े गए जिंदा आतंकी कसाब को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चलनेवाले आतंकी कैंपो में हीरो बना दिया और उसके मारे उसके साथियों को शहीद। जिस अमेरिका ने रुस को हराने के लिए तालिबान का सहारा लिया...उसी के लड़ाकों ने अमेरिका को 9/11 दिया। जिसके जख्म अभी भी नहीं धुले हैं। पाकिस्तान से भेजे गए जो आतंकी कल तक कश्मीर में उत्पात मचा रहे थे...वे अब अपने ही घर में रोज खून की होली और बमों से दीवाली मना रहे हैं...और अब पढ़े-लिखे अमेरिकियों के जेहाद में शामिल होने की ख़बरों ने ओबामा प्रशासन के होश उड़ा दिए हैं। लेकिन, लाख टके का सवाल ये है कि इतने पढ़े लिखे और अच्छे घरों के लड़के इस राह पर क्यों चल रहे हैं ?
Saturday, August 22, 2009
किसान
वो रात-दिन मेहनत करता है
खून-पसीने से धरती सींचता है
धरती पर चलाता हल है
फिर भी भूखा सोता है !
उसे भूत याद नहीं !
भविष्य की चिंता नहीं
वर्तमान में जीता है
धरती से अन्न उगाता है
फिर भी भूखा सोता है !
कर्म पथ पर चल पड़ा है
धर्म पथ पर चल पड़ा है
मेहनत को समझा भगवान
फिर भी भूखा सोता है !
दुनिया की चिंता नहीं
चकाचौंध की चाह नहीं
हाड़तोड़ मेहनत को समझा इमान
फिर भी भूखा सोता है !
वो दर्द में जीता है
वो दर्द में मरता है
फिर भी कोई आह नहीं
फिर भी भूखा सोता है !
सबका प्यारा है किसान
पीएचडी की थीसिस है किसान
राजनीतिक दलों का वोट बैंक है किसान
फिर भी भूखा सोता है !
इस जीवन की आपाधापी में
नए दौर की भागाभागी में
सबकी भूख मिटाता है
फिर भी भूखा सोता है !
खून-पसीने से धरती सींचता है
धरती पर चलाता हल है
फिर भी भूखा सोता है !
उसे भूत याद नहीं !
भविष्य की चिंता नहीं
वर्तमान में जीता है
धरती से अन्न उगाता है
फिर भी भूखा सोता है !
कर्म पथ पर चल पड़ा है
धर्म पथ पर चल पड़ा है
मेहनत को समझा भगवान
फिर भी भूखा सोता है !
दुनिया की चिंता नहीं
चकाचौंध की चाह नहीं
हाड़तोड़ मेहनत को समझा इमान
फिर भी भूखा सोता है !
वो दर्द में जीता है
वो दर्द में मरता है
फिर भी कोई आह नहीं
फिर भी भूखा सोता है !
सबका प्यारा है किसान
पीएचडी की थीसिस है किसान
राजनीतिक दलों का वोट बैंक है किसान
फिर भी भूखा सोता है !
इस जीवन की आपाधापी में
नए दौर की भागाभागी में
सबकी भूख मिटाता है
फिर भी भूखा सोता है !
Tuesday, April 21, 2009
कहां गई विचारधारा ?
एक समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी हुआ करता था, उस वक्त विपक्षियों ने नारा दिया- 'दो बैलों की जोड़ी है, एक अंधा, एक कोढ़ी है'। तब विपक्ष के इस नारे की बड़ी चर्चा हुई...आलोचना हुई। इस लोकसभा चुनाव में अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने जैसे-जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया उसके बारे में क्या कहा जाए...ये वोटर ही बेहतर बता सकता है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए अपशब्द का इस्तेमाल किया। जवाब में कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा कि अगर हम गांधीवादी नहीं होते तो उनकी जुबान खींच लेते। कुछ नेताओं ने तो ऐसे-ऐसे बयान दिए जिसे दुबारा जुबान पर लाते हुए लज्जा आती है। लेकिन इन नेताओं ने वगैर किसी हिचक के ये बाते जनता के बीच कही... मीडिया की मौजूदगी में कहीं। कोई किसी को पप्पी-झप्पी देने की बात कर रहा है...कोई किसी को हिजड़ा बता रहा है...कोई अफजल गुरु को किसी का दामाद बता कर सवाल पूछ रहा है। नेताओं की ये जुबानी जंग न्यूज़ चैनलों के माध्यम से पूरे देश के घर-घर पहुंची। अब जनता को तय करना है कि वो इसे कितना गंभीरता से लेती है। सब कुछ वक्त के साथ बदल गया है। सारी शालिनता और मर्यादा अरब सागर में डूब चुकी है। कांग्रेस को जब चुनाव चिन्ह के रुप में हाथ मिला तो विपक्षियों ने पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ 'खूनी पंजा' कह कर प्रचार किया। तब कांग्रेस ने जवाबी नारा दिया 'जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर' वाकई मुहर हाथ पर लगी। 1977 में कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का जिस नारे ने काम किया वो था 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है...भावी इतिहास तुम्हारा है'। वाकई कांग्रेस केंद्र से उखड़ी और जनता पार्टी की सरकार बनी। जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था। जनता पार्टी सरकार की नाकामी गिनाने के लिए कांग्रेस लोगों के बीच जिस नारे के साथ गई वो था-'क्या हुआ जी, क्या हुआ, चूहा बत्ती ले गया, इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं' इसी नारे के सहारे कांग्रेस की दुबारा दिल्ली के तख्त पर वापसी हुई। इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने जब मारुती का कारखाना लगाने की ठानी तो विरोधियों ने एक सुर में कहा- 'बेटा कार बनाता है...मां बेकार बनाती है'। कांग्रेसी राज में महंगाई के मुद्दे पर सोशलिस्टों ने नारा दिया- 'खा गई राशन पी गई तेल, यह देखो इंदिरा का खेल'। इस नारे का असर ऐसा हुआ कि कांग्रेस को जवाबी नारा देना पड़ा 'गरीबी हटाओ'। 1980 के दशक में चुनाव के दौरान कांग्रेस ने नारा दिया 'इंदिरा लाओ, देश बचाओ'। इंदिरा गांधी के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कांग्रेस ने कहा- 'इक्कीसवीं सदी में जाना है, कांग्रेस को जिताना है'। 90के दशक में जब मंडल की हवा चली तो उस वक्त जिस नारे ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया वो था- 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है'। मंडल के गुब्बारे की जिस नारे ने हवा निकाली वो था- 'राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे' और 'बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का'। अब वक्त बदलने लगा था संसदीय राजनीति का मिजाज बदलने लगा था। क्षेत्रीय पार्टियां अब राष्ट्रीय राजनीति में दिखने लगी थी और दिल्ली से इनकी दूरी कम होने लगी थी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने नारा दिया- 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू'...बिहार में आरजेडी , यूपी में बीएसपी और एसपी, पंजाब में अकाली, आंध्रप्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडू में एआईडीएमके और डीएमके, पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट, उड़ीसा में बीजेडी, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना यही पार्टियां अपने सीमित दायरे से निकल कर अब दिल्ली की सरकार बनाने में अहम रोल निभा रही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा जैसे-जैसे फैल रहा है वैसे-वैसे कांग्रेस और बीजेपी का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। यही फैलाव और सिकुड़न राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारा से धीरे-धीरे विचार को गायब कर रहा है। अब विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण सरकार बनाना और उसे बचाए रखने की चुनौती है। ऐसे में कब किसका हाथ
पकड़ना और छोड़ना पड़ जाए कोई नहीं जानता। इसलिए आज की राजनीति में कोई अपने आप को किसी विचारधारा के दायरे में बांधना नहीं चाहता। यही वजह है कि अब चुनाव में न तो मुद्दों का पता चल पा रहा हैं...न हीं नारों का। ऐसे में विचारधारा को राजनीतिक पार्टियां एक मुखौटे के रुप में इस्तेमाल कर रही हैं।
पकड़ना और छोड़ना पड़ जाए कोई नहीं जानता। इसलिए आज की राजनीति में कोई अपने आप को किसी विचारधारा के दायरे में बांधना नहीं चाहता। यही वजह है कि अब चुनाव में न तो मुद्दों का पता चल पा रहा हैं...न हीं नारों का। ऐसे में विचारधारा को राजनीतिक पार्टियां एक मुखौटे के रुप में इस्तेमाल कर रही हैं।
Monday, March 9, 2009
कुछ भी तो नहीं बदला...
पिछले कई वर्षों से मैं बिहार नहीं गया था, लेकिन इस बार मौका मिला। मेरा सफर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से शुरू हुआ... ट्रेन करीब 3 घंटे लेट थी। ट्रेनों का लेट होना हमारे यहां सामान्य बात है। आमने-सामने की सीट पर कॉलेजों में पढ़नेवाले छात्र बैठे थे। ये बिहार का निम्न मध्यमवर्ग था जिसके सपने आसमान में उड़ने के थे...बिहार के लिए कुछ करने का इरादा था। इनके पास लैपटॉप, मोबाइल फोन जैसी चीजें भी थीं। पूरी दुनिया से बेखबर इनमें से कोई गाना सुनने में मस्त था...कोई अपने लैपटॉप पर कुछ सर्च करने में लगा हुआ था...और कोई न्यूज पढ़ने में मग्न था। गाड़ी भी अपनी रफ्तार से चल रही थी। दिल्ली से अलीगढ़ के बीच तो सब अपने में मग्न थे, लेकिन कुछ ही मिनटों में तीन बार ट्रेन के रुकने ने एक-दूसरे को
करीब ला दिया। इनमें से एक बोला "लालू यादव ने संसद में कहा कि हमने भारतीय रेल को हाथी से चीता बना दिया...यार मुझे तो लगता है उन्होंने घोड़े को गदहा बना दिया...तीन घंटे ट्रेन का लेट होना कोई मायने रखता है...जगह-जगह रुक रही है। सपने जापान की तरह बुलेट ट्रेन चलाने के हैं, लेकिन जो चल रही है उसकी हालत सुधारने की कोई बात नहीं कर रहा है।
देखिएगा पटना पहुंचे-पहुंचे जरुर 6-7 घंटे लेट हो जाएगी।" दूसरे ने बीच में ही कहा कि नेताओं ने तो बिहार का सत्यानाश कर दिया है। जो बिहार कभी इतना धनी और संपन्न हुआ करता था...जहां पढ़ने देश के कोने-कोने से छात्र आते थे...वहां के लड़के अब सीधे ट्रेन पकड़ कर बिहार से बाहर निकल जाते हैं, उन्हें बिहार में अपना भविष्य दिखाई नहीं देता। यही वजह है कि हमलोग अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गए हैं और जो एक बार यहां से निकल जाता है वो शायद ही वापस लौटता है। उस लड़के की बात में दर्द भी था और दम भी। बिहार के जितने लोगों से मैं दिल्ली और दूसरी जगहों पर मिला हूं, कोई वापस जाने का नाम नहीं लेता। ज्यादातर अपना भविष्य दूसरी जगहों पर ही तलाशते हैं। अचानक मैंने पूछा, " बिहार के लिए क्या किया जा सकता है ? " सबकी अपनी-अपनी राय थी। कोई नहरों के जाल बनाने की बात कर रहा था...कोई कल-कारखाने लगाने की...कोई लॉ-ऑडर को ठीक करने की। पूरी रात और दिन बातों में ही कट गया। मेरा स्टेशन डुंमराव आनेवाला था...वाकई अब तक ट्रेन करीब साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी थी। वहां से मुझे करीब बीस किलोमीटर दूर गंगा के किनारे एक गांव में जाना था। रास्ता परिचित था...एक लंबे समय के बाद इस रास्ते से गुजर रहा था इसलिए एक-एक चीज को याद करने में लगा हुआ था। सब कुछ वही था...कुछ ज्यादा नहीं बदला। अब मिनी बस और जीप के साथ ऑटो भी इस रुट पर आ चुके थे। जिस रास्ते से मैं गुजर रहा था...रोड़ की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया था। बीस किलोमीटर का सफर 2 घंटे में पूरा करके मैं अपने गांव पहुंच चुका था। वहां गजब की शांति थी, रह-रह कर फूलों की खूशबू आ रही थी, सामने ही कई किलोमीटर तक चारों ओर गेहूं और चने की फसल भी लहलहा रही थी। बस जिस एक चीज की वहां कमी खल रही थी वो थी लोगों की...ज्यादातर लोग वहां से जा चुके थे।
करीब ला दिया। इनमें से एक बोला "लालू यादव ने संसद में कहा कि हमने भारतीय रेल को हाथी से चीता बना दिया...यार मुझे तो लगता है उन्होंने घोड़े को गदहा बना दिया...तीन घंटे ट्रेन का लेट होना कोई मायने रखता है...जगह-जगह रुक रही है। सपने जापान की तरह बुलेट ट्रेन चलाने के हैं, लेकिन जो चल रही है उसकी हालत सुधारने की कोई बात नहीं कर रहा है।
देखिएगा पटना पहुंचे-पहुंचे जरुर 6-7 घंटे लेट हो जाएगी।" दूसरे ने बीच में ही कहा कि नेताओं ने तो बिहार का सत्यानाश कर दिया है। जो बिहार कभी इतना धनी और संपन्न हुआ करता था...जहां पढ़ने देश के कोने-कोने से छात्र आते थे...वहां के लड़के अब सीधे ट्रेन पकड़ कर बिहार से बाहर निकल जाते हैं, उन्हें बिहार में अपना भविष्य दिखाई नहीं देता। यही वजह है कि हमलोग अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गए हैं और जो एक बार यहां से निकल जाता है वो शायद ही वापस लौटता है। उस लड़के की बात में दर्द भी था और दम भी। बिहार के जितने लोगों से मैं दिल्ली और दूसरी जगहों पर मिला हूं, कोई वापस जाने का नाम नहीं लेता। ज्यादातर अपना भविष्य दूसरी जगहों पर ही तलाशते हैं। अचानक मैंने पूछा, " बिहार के लिए क्या किया जा सकता है ? " सबकी अपनी-अपनी राय थी। कोई नहरों के जाल बनाने की बात कर रहा था...कोई कल-कारखाने लगाने की...कोई लॉ-ऑडर को ठीक करने की। पूरी रात और दिन बातों में ही कट गया। मेरा स्टेशन डुंमराव आनेवाला था...वाकई अब तक ट्रेन करीब साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी थी। वहां से मुझे करीब बीस किलोमीटर दूर गंगा के किनारे एक गांव में जाना था। रास्ता परिचित था...एक लंबे समय के बाद इस रास्ते से गुजर रहा था इसलिए एक-एक चीज को याद करने में लगा हुआ था। सब कुछ वही था...कुछ ज्यादा नहीं बदला। अब मिनी बस और जीप के साथ ऑटो भी इस रुट पर आ चुके थे। जिस रास्ते से मैं गुजर रहा था...रोड़ की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया था। बीस किलोमीटर का सफर 2 घंटे में पूरा करके मैं अपने गांव पहुंच चुका था। वहां गजब की शांति थी, रह-रह कर फूलों की खूशबू आ रही थी, सामने ही कई किलोमीटर तक चारों ओर गेहूं और चने की फसल भी लहलहा रही थी। बस जिस एक चीज की वहां कमी खल रही थी वो थी लोगों की...ज्यादातर लोग वहां से जा चुके थे।
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