Sunday, September 12, 2010

आज का अयोध्या

अयोध्या यानि भगवान राम की जन्मभूमि। अयोध्या यानि यूपी के फैजाबाद जिले का एक इलाका। अयोध्या यानि बाबरी मस्जिद। अयोध्या यानि भारतीय राजनीति सबसे गर्म मुद्दा। अयोध्या यानि करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का केंद्र। अयोध्या के जितने मायने निकाले जाए कम हैं। ये एक ऐसी नगरी है जिसे पहचान की जरुरत नहीं बस तर्क के हिसाब से उसे अपने सांचें में फिट कर लीजिए। 2010 में अयोध्या फिर रणभूमि में तब्दील होने लगा है। 24 सितंबर को इलाहाबाद हार्इकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले पर देश के हर छोटे-बड़े आदमी की नज़रें लगी हुई हैं। इस तारीख को अदालत फैसला देगी कि अयोध्या किसका ? दरअसल, बाबरी मस्जिद पर मालिकाना हक का मासला 1949 से अदालत में है।

भारतीय जनता पार्टी, विश्वहिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों का दावा है कि जिस जगह बाबरी मस्जिद थी वहां पहले मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई । इन संगठनों का कहना है कि वह स्थान भगवान राम का जन्म स्थान है। दूसरी ओर मुस्लिम संगठनों का कहना है कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि वहां पहले मंदिर था। 1949 से लेकर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने तक जो भी हुआ वो पुलिस, सुरक्षा बलों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुआ। मंदिर में ताला लगाने, नमाज़ पर पाबंदी, पूजा की इजाज़त जैसे तमाम फ़ैसले आज़ाद भारत के धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने लिए थे।

बीजेपी बाबरी मस्जिद विवाद के लिए तीन तरह के हल की बात करती है। एक, अदालत के फ़ैसले पर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। दूसरा, मुस्लिम समुदाय से बात की जाए और वे विवादित स्थल पर अपना दावा छोड़ दें। तीसरा, संसद में क़ानून बनाकर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। अब 24 सितंबर को कोर्ट अपना फैसला देगी। फैसला चाहे जिसके पक्ष में हो तनाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, अयोध्या में धारा 144 अभी से लगा दी गई है। कर्फ्यू की आशंका से वहां के लोगों ने अभी से राशन-पानी घरों में जमा करना शुरू कर दिया है क्योंकि यहां के लोगों के जहन में 1992 की यादें अभी ताजी हैं।

अयोध्या में मंदिरों के बाहर पूजा के लिए फूल-माला, अगरबत्ती जैसी चीजें बेचने का काम वहां का ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। कई मुस्लिम तो खड़ाऊ की दुकानों के मालिक भी हैं इसी तरह मस्जिदों के बाहर फूलों की चादर बेचने के काम में कई हिंदू जुटे हैं। ये अयोध्या के लोगों का स्थानीय प्रेम है जिसे शायद बाहरवाले नहीं समझ सकते। अयोध्या सिर्फ हिंदुओं की नगरी है ये कहना बिल्कुल गलत है। यहां मुस्लिम भी बड़ी संख्या में रहते हैं। सिर्फ़ अयोध्या में ही करीब 85 मस्जिदें मौजूद हैं और अधिकतर में अब भी नमाज़ अदा की जाती है। बहुत सी जगहों पर मंदिर और मस्जिद साथ- साथ हैं। अयोध्या की ऐतिहासिक औरंगज़ेबी मस्जिद के ठीक पीछे सीता राम निवास कुंज मंदिर भी है। इन दोनों के बीच सिर्फ एक दीवार है। आलमगीरी मस्जिद मुगल काल में बनी थी। वहां मस्जिद के पास एक दरगाह भी है। अयोध्या की हुनमान गढ़ी, आचार्यजी का मंदिर और उदासीन आश्रम के लिए तत्कालीन मुसलमान शासकों ने ज़मीन दी थी। हनुमान गढ़ी के निर्माण के लिए ज़मीन अवध के नवाब ने दी थी। शायद इसीलिए आज भी रोज़ाना एक मुसलमान फकीर को गढ़ी की ओर से कच्चा खाना दिया जाता है।

अयोध्या हमेशा से ही जंग का मैदान रहा है। लेकिन जब भी हालात तनावपूर्ण हुए यहां के आम आदमी ने हमेशा अमन के लिए दुआ मांगी। यहां के मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की ध्वनि साथ-साथ निकलते हैं। चाहे आज का अयोध्या हो या कल का...सत्ता के लिए सबने इसे लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया है जिसकी आग में यहां का आम आदमी झुलसा है। जरुरत अयोध्या को समझने की है। उसके दर्द को महसूस करने की…आखिर आधुनिक विकास की बयार यहां भी बहनी चाहिए। यहां के लोगों तक उसके झोंके पहुंचने चाहिए। आस्था मन के भीतर होती है...प्रेम दिल के भीतर होता है...ये वगैर दिखाए और बताए भी अपने अराध्य तक पहुंच जाते हैं।

भगवान अब माफ भी करो !

दिल्ली पर इन दिनों इंद्र देव कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं। सुबह हो या शाम, रात हो या दिन कभी भी बरसने लगते हैं। इंद्र देवता की इस मेहरबानी से दिल्ली में अफसरों से लेकर आम आदमी तक सब परेशान हैं। अफसर इस लिए परेशान हैं क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों को फाइनल टच दिया जाना बाकी है और आम आदमी इस लिए परेशान है क्योंकि उसे बारिश की वजह से कहीं आने-जाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लंबे-लंबे ट्रैफिक जाम में उसे रोज घंटों गुजारने पड़ते हैं। हालत ये हो गई है कि बूंद-बूंद को तरसने वाली यमुना नदी भी राजधानी में कहर बरपा रही है। यमुना नदी दिल्ली में अपना 32 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ेगी या नहीं...ये कुदरत पर छोड़ दीजिए क्योंकि हमने यमुना के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है न कि उसने हमारे क्षेत्र में...नतीजा तो भुगतना होगा। कॉमनवेल्थ आयोजन समिति तो हर दिन इंद्र देव से यही प्रार्थना कर रही होगी कि प्रभू बहुत हुआ...अब शांत हो जाओ...
महाभारत काल में ब्रजवासियों को इंद्र के क्रोध का सामना करना पड़ा। इंद्र देव ने मूसलाधार बारिश से ब्रजवासियों को तहस-नहस करने का फैसला किया...तब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा कर वहां के लोगों की रक्षा की। अगर इंद्र देव ऐसे ही बरसते रहे तो कॉमनवेल्थ गेम्स को कौन बचाएगा ? क्या चीन की तर्ज पर बादलों को आसमान में ही नष्ट या इधर-उधर करने की कोशिश की जाएगी ? या फिर स्टेडियम के ऊपर कोई गोवर्धननुमा इंतजाम किए जाएंगे ? वक्त बहुत कम बचा है ! लेकिन इतना भी कम नहीं कि कुछ किया ही न जा सके।
कॉमनवेलथ की जब भी बात आती है तो अक्सर राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए एशियाड खेलों की चर्चा की जाती है। एशियाड खेल1982 यानि आज से करीब 28 साल पहले दिल्ली हुए थे। जिन लोगों ने उस दौर को देखा है उनका कहना है कि पूरी दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया गया था। कई नए स्टेडियम बनाए गए...सड़के बनीं और ये सब हुआ सिर्फ 2 साल के भीतर। उस समय भी स्टेडियम की छत के टपकने का एक मामला सामने आया। ये घटना खेल के उद्धाटन समारोह संपन्न होने के बाद की है। जैसे ही राजीव गांधी को स्टेडियम की छत टपकने की ख़बर मिली वो अपने दो साथियों अरुण नेहरू और अरुण सिंह के साथ स्टेडियम के लिए निकल पड़े। मूसलाधार बारिश जारी थी। अगले ही दिन जहां भारोत्तोलन प्रतियोगिता होनी थी वहां पानी भर गया। इस हालात से निपटना बड़ी चुनौती थी। देश की नाक का सवाल था। करीब एक हज़ार मजदूरों को आनन-फानन में बुलवाया गया। रात भर स्टेडियम को दुरुस्त करने का काम चलता रहा। राजीव गांधी अपने दोनों साथियों के साथ रात भर वहां मौजूद रहे। उस दिन उनकी मां और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्मदिन था। राजीव गांधी उस रात घर नहीं गए। ये एक जुनून था...एक जिम्मेदारी थी...एक चुनौती थी जिसे उन्होंने पूरा किया।
28 साल देश में इतना बड़ा खेल आयोजन हो रहा है। देश का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। नाक से लेकर पैसा तक। खेलों पर 28000 करोड़ रुपये (दिल्ली में बुनियादी सुविधाओं के विकास पर खर्च छोड़कर) खर्च हो रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक ऐसे खेल आयोजन से सिर्फ कुछ लोगों का फायदा होता है और बाकी लोग इसके कर्ज को दशकों तक झेलने के लिए मजबूर होते है। कॉमनवेल्थ गेम्स की कीमत दिल्ली के लोगों को अगले 20-25 वर्षों तक चुकानी होगी।

Sunday, September 5, 2010

बिहार का किंग कौन ?

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए रण सज चुका है और अब रणभेरी का सबको इंतजार है। अक्टूबर-नवंबर में होनेवाले चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने तैयारियां पहले से ही शुरू कर दी हैं। चुनाव का माहौल काफी पहले से बनाया जा रहा है। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में नई जान डालने के लिए राहुल गांधी ने पूरा जोर लगा दिया है। कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन दिलचस्प मुकाबला तो नीतीश और लालू के बीच है। एक के सामने अपना ताज बचाए रखने की चुनौती तो दूसरे के सामने अपना खोया ताज पाने की चुनौती। बिहार का सियासी गणित उतना आसान नहीं है जितना दूर से देखने पर लगता है। वहां की जनता ने अक्सर राजनीतिक पंडितों और पूर्वनुमान करने वालों को ठेंगा दिखाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ताल ठोंक कर अब तक बीजेपी से अलग हो गए होते, लेकिन सूबे की सियासत और मिजाज से वो अच्छी तरह से परिचित हैं। उन्हें पता है कि रण और रणनीति में मामूली गलती भी उन्हें बिहार की सत्ता से बेदखल कर देगी।

जेडीयू-बीजेपी की दोस्ती में कई बार ऐसा लगा कि चुनाव से पहले दरार आ जाएगी, लेकिन अब तक दोस्ताना कायम है। आरजेडी और एलजेपी ने भी हालात को देखते हुए हाथ मिला लिया। अब फैसला बिहार के लोगों को करना है कि उन्हें क्या चाहिए ? नीतीश के विकास की बयार बिहार के आम आदमी तक कितनी पहुंची है ? ये सिर्फ आंकड़ों और शहरों तक सीमित है या फिर आम-आदमी तक भी पहुंची है ? इसकी जांच का सही समय आ गया है। बिहार सरकार की मानें तो सूबे की कानून-व्यवस्था में गजब सुधार हुआ है। पटना की सड़कों पर देर रात तक अब आराम से महिलाएं बगैर किसी डर के निकलती हैं। बिजली की हालत भी सुधरी है। सड़कें बनी हैं यानि अब विकास की पटरी पर बिहार दौड़ने लगा है। 2005 में बिहार में 23 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित थे। आज यह आंकड़ा महज 8 लाख है। छात्रों के प्राथमिक विद्यालय बीच में ही छोड़ देने की दर 36 फीसदी थी, पर आज यह 12 फीसदी है। 2005 में बिहार में स्कूलों की इमारतों की संख्या 49,000 थी, पर आज 61,000 हो गई है। साल 2005 में सिर्फ 8200 स्कूलों के पास लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, लेकिन आज ऐसे स्कूलों की संख्या 23,200 हो गई है। साक्षरता के मामले में देशव्यापी आंकड़ा 64 फीसदी का है, लेकिन बिहार में यह सिर्फ 47 फीसदी पर है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 53.57 फीसदी है जबकि बिहार में महज 33 फीसदी। अच्छा है बिहार में कुछ तो बदल रहा है। ये आंकड़े नीतीश कुमार को विकास पुरुष तो साबित कर देते हैं लेकिन चुनाव फिर से जीता देंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। अगर गारंटी होती तो नीतीश बीजेपी के साथ अपने रिश्तों को बॉय-बॉय कर चुके होते, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फोटो छपने पर उन्होंने जिस तरह से विरोध दर्ज करवाया उसका सियासी मतलब तो यही निकलता है। कहीं न कहीं उनके मन में डर है कि मोदी के कारण मुस्लिम वोट उनके पक्ष में नहीं आएगा यानि नीतीश को अपने विकास के एजेंडा पर उतना भरोसा नहीं है जितना मैदान के बाहर से कमेंट्री करनेवाले पत्रकारों और राजनीतिक विशलेषकों को है। बिहार में मतदान विकास के नाम पर होगा या समीकरणों के आधार पर ये तो मतदान के बाद पता चलेगा लेकिन यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि बिहार का पूरा जनमत नीतीश कुमार के साथ है।

नीतीश इंजीनियर रहे हैं और अब वो चुनाव के लिए विभिन्न जातियों की सोशल इंजीनियरिंग करने में लगे हुए हैं। सवर्ण यानी ऊंची जातियां हमेशा बीजेपी का वोट बैंक रही हैं लेकिन वो इस बार नीतीश से नाराज़ हैं यानी ये वोट बंट सकते हैं। नीतीश दलितों और महादलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने का दावा कर रहे हैं लेकिन इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि लालू और रामविलास पासवान का वोट बैंक रहा ये समुदाय इतनी जल्दी नीतीश के साथ चला जाएगा। वैसे भी नीतीश कुर्मी और कोइरी यानी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दलितों के शोषण में इस समुदाय का भी बड़ा हाथ रहा है। रही बात मुसलमानों की तो उन्हें नीतीश से फ़ायदा हुआ है। निचले और ग़रीब तबके के मुसलमान नीतीश के साथ हैं लेकिन पढ़े लिखे मध्यवर्गीय मुसलमान नीतीश से काफ़ी नाराज़ हैं। बिहार के किंग का फैसला करने में मुस्लिम वोट काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस वोट बैंक को न तो कोई हाथ से जाने देना चाहता है और न ही किसी ओर सेंध लगाने। चुनावों से पहले माहौल बनाने में भी इस वर्ग का बड़ा हाथ रहता है। शहरों में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहतर होने के कारण शहरी मतदाता भले ही नीतीश के साथ हो जाए लेकिन बिहार का किंग बनाने के लिए काफी नहीं है। लालू-पासवान पिछले पांच साल से बिहार में सत्ता से बाहर हैं उनके पास नीतीश पर हमला बोलने के लिए पूरा मौका है, जिसका वो पूरा फायदा उठाएंगे। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस अपने बूते सरकार तो नहीं ही बना सकती है लेकिन अगर मुस्लिम और दलित वो बैंकों में सेंध लगाए तो खेल बिगाड़ने की स्थिति में आ ही सकती है। इसका नमूना पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान साफ-साफ दिखा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के लोग इस बार सत्ता किसे सौंपते हैं? विकास का या फिर जातिगत जोड़तोड़ को...

Thursday, June 3, 2010

अब सेना से भी टूट जाएगा भरोसा ?

शौर्य और अनुशासन का दूसरा नाम है भारतीय सेना। सेना को हमारे देश में बहुत ही सम्मान की नज़र से देखा जाता है। हाल की कुछ घटनाओं ने आम आदमी के इस भरोसे को झकझोर दिया है। जिस सेना को हिंदुस्तान का आम आदमी सम्मान की नज़रों से देखता था उसे आज शक की नज़रों से देख रहा है। क्या वक्त के साथ सेना का चाल, चेहारा और चरित्र बदल गया है या वर्दी पर लगे इक्के-दुक्के दाग ही सेना की छवि को दागदार कर रहे हैं। हाल ही में सेना में इंजीनियर इन चीफ पद पर तैनात लेफ्टिनेंट जनरल ए के नंदा पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा है। सेना के ही टेक्नीकल सेक्रेटरी की पत्नी ने नंदा पर यह आरोप लगाया है। टेक्नीकल सेक्रेटरी की पत्नी के अनुसार पिछले महीने इजरायल यात्रा के दौरान उसके साथ यौन उत्पीड़न का प्रयास किया गया था। जनरल के बचाव में खुद उनकी पत्नी आ गई हैं और उनका कहना है कि वो अपने पति को अच्छी तरह से जानती हैं। इजरायल यात्रा के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नंदा की पत्नी तो अपने पति के बचाव में आ गईं लेकिन ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि कोई दूसरी औरत किसी पर इतना बड़ा इल्जाम बिना वजह क्यों लगाएगी ? सच्चाई जांच के बाद ही पता चलेगी...लेकिन अगर यौन उत्पीड़न के आरोप सच होते हैं तो भी और गलत होते हैं तो भी...दोनों ही हालात में सेना की साख पर बट्टा लगेगा। लेकिन सेना के इतिहास में ये कोई पहला मौका नहीं है जब इस तरह के आरोप सामने आए हैं। इससे पहले मेजर जनरल ए के लाल पर एक महिला अफसर के साथ यौन-उत्पीड़न का आरोप लगा। ए के लाल के बचाव में तब उनकी पत्नी और बेटियां आईं और उन्होंने ने आरोप लगानेवाली महिला अफसर के चरित्र पर ही सवाल उठाए। बाद में जांच हुई...मेजर जनरल दोषी पाए गए। कोर्ट मार्शल हुआ और सेना से बर्खास्त कर दिए गए। नौसेना के कमोडोर सुखजिंदर सिंह भी कुछ इसी तरह के आरोप में फंस हैं। उन पर आरोप है कि 2006 से 2008 के दौरान एक रूसी महिला से उनके संबंध थे। वह गोर्शकोब पनडुब्बी की मरम्मती परियोजना के प्रमुख थे। हाल ही में सुकना जमीन घोटाला सामने आया। इसमें तत्कालीन सैन्य सचिव लेफ्टि‍नेंट जनरल अवधेश प्रकाश और सुकना के पूर्व कोर कमांड लेफ्टनेंट जनरल पी के रथ के खिलाफ कोर्ट मार्शल चल रहा है। इसी मामले में सेना के दो बड़े अफसरों को प्रशासनिक कार्रवाई का भी सामना करना पड़ा है। इन सभी को सुकना में सैन्य छावनी के पास की जमीन बेचे जाने के लिए एनओसी देने में धांधली करने का दोषी पाया गया है। बात यहीं खत्म नहीं होती 2003 में कर्नल एच एस कोहली को सेना से निकाल दिया गया। उन पर आरोप था कि मेडल लेने के लिए उन्होंने झूठे बहादुरी के सबूत दिए। जांच में पाया गया कि कोहली ने दक्षिण असम के कछार जिले में मरे हुए नागरिकों पर टोमैटो केचअप डाल कर उन्हें मुठभेड़ में मरे आतंकवादी के रूप में पेश किया था। इस गुनाह में मेजर रविंदर सिंह और ब्रिगेडियर सुरेश राव भी शामिल थे। ताबूत घोटाले की आंच ने भी सेना की छवि पर बट्टा लगाया है। का‍रगिल युद्ध के बाद 2002 में सामने आए ताबूत घोटाले के सिलसिले में सेना के एक तत्कालीन कर्नल एफबी सिंह के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया था। रिटायर्ड कर्नल एस.के. मलिक और रिटायर्ड मेजर जनरल अरुण रोवे का नाम भी आरोपपत्र में शामिल था। कहीं ऐसा तो नहीं कि सेना के कड़े अनुशासन की आड़ में अनगिनत मामले दबे पड़े हों और इंसाफ के लिए छटपटा रहे हों... सेना से लोगों का भरोसा नहीं टूटना चाहिए...लेकिन कड़े अनुशासन की आड़ में किसी के साथ नाइंसाफी भी नहीं होनी चाहिए। सच चाहे कितना भी कड़वा हो...दुनिया के सामने आना चाहिए।

Thursday, May 6, 2010

आतंक को फांसी दो...

न्यूयॉक के टाइम्स स्क्वायर को दहलाने की साजिश के तार भी पाकिस्तान से जुड़े। इस मामले जिस फैजल शहजाद को गिरफ्तार किया गया है वह मूल रुप से पाकिस्तान का रहनेवाला है। फैजल के पिता सेवानिवृत्त वाइस एयर मार्शल हैं जिन्हें पाकिस्तान में विशेष दर्जा मिला हुआ है। फिलहाल फैजल के आतंकी कनेक्शन की कुंडली निकालने में अमेरिकी अधिकारियों की टीम लगी हुई है। अमेरिका से पाकिस्तान तक उसके कनेक्शन का पोस्टमार्टम चल रहा है। फैजल अमेरिका में पढ़ा लिखा है। वहां की नागरिकता भी ले चुका है। वहां की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े ओहदे पर काम भी कर चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि एक होनहार नौजवान आखिर आतंकी क्यों बना? उसने आतंक का रास्ता क्यों चुना ? ऐसे कई सवाल हैं जिनका सही-सही उत्तर पूरी दुनिया को जानना है। क्योंकि ये मामला सिर्फ फैजल शहजाद का नहीं पूरी दुनिया में तैयार हो रहे हज़ारों फैजल शहजाद का है। विदेशी मामलों के स्तंभकार अरनोड डी बॉर्शग्रेव ने अपने कॉलम में लिखा है, पाकिस्तान अब भी हर साल अपने 11 हजार मदरसों के पांच लाख स्त्रातकों में से करीब दस हजार जिहादियों को पैदा कर रहा है जिनमें से अधिकतर की उम्र 16 साल है। उन्होंने लिखा है, ये जिहादी मानते हैं कि इस्लाम के दुश्मन यानि अमेरिका, भारत और इजरायल इस्लाम के पहरूओं को पीछे हटाना चाहते हैं और मुस्लिम देशों को परमाणु हथियार से वंचित रखना चाहते हैं। बोर्शग्रेव का कहना है कि पाकिस्तानी अमेरिका को अपना सबसे बडा दुश्मन नहीं मानते, बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी द्वारा पैदा किया गया आतंकी संगठन तालिबान आम जनता का सबसे बडा दुश्मन है। 26/11 हमले के बाद जब पुलिस ने आमिर अजमल कसाब को जिंदा पकड़ा तो तर्क ये दिया गया कि गरीबी ने उसे आतंकी बना दिया। उसकी कम शिक्षा ने उसे आतंक की राह पकड़ा दी। फैजल के बारे में भी कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गई और वो बेरोजगार हो गया। उस पर कर्ज काफी था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था और मजबूरी में उसने आतंक का दामन थाम लिया। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि ज्यादातर पाकिस्तानी मूल के नागरिक ही आतंक की राह क्यों पकड़ते हैं? वहां की आबोहवा में ऐसी क्या ख़ास बात है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में हुए आतंकी हमलों के तार वहीं से जुड़ जाते हैं। पाकिस्तानी आतंक फैक्ट्री से निकले जिहादी ही दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में क्यों पकड़े जाते हैं? क्या वहां की सामाजिक व्यवस्था आतंकियों को सम्मान देती है जिसकी इच्छा हर आम और ख़ास को होती है? क्या वहां की व्यवस्था में आतंक और जेहाद को वो सम्मान हासिल है जो और कहीं नहीं मिलता? या फिर पाकिस्तान में शोहरत, सम्मान और दौलत पाने का ये सबसे आसान तरीका आतंक ही है ? अब बड़ा सवाल ये है कि आतंकी चाहते क्या हैं? मुझे लगता है कि वो सुर्खियां चाहते हैं और इन्हीं सुर्खियों के ऑक्सीजन के दम पर वो जिंदा है। अमेरिका में हुए 9/11 ने ओसामा-बिन-लादेन को आंतक की दुनिया में हीरो बना दिया। अंतराष्ट्रीय मंच पर होनेवाली ज्यादातर बैठकों का एजेंडा ओसामा, अलकायदा और आतंक हो गया। हमला अमेरिका पर हुआ था यानि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश पर तो अंजाम तो कुछ-न-कुछ होना था। तालिबान की ईंट से ईंट बजा दी गई लेकिन न तो ओसामा हाथ आया और न ही अलकायदा का खात्मा हुआ। करीब 10 साल होनेवाले हैं अब भी अफगानिस्तान में जंग खत्म नहीं हुई। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के मुंह से हमेशा ओसामा को खत्म करेंगे निकलता रहता है। जब आतंकी घटना की बसरी मनाई जा रही होती हैं तो मौन हो कर अपनों को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं तो उन तस्वीरों को देखकर आतंकियों का हौसला बढ़ता है। जब हम रो रहे होते हैं तो वो हंसते हैं। क्योंकि हम पर चोट...उनकी जीत होती है। जितनी बार दुनिया ओसामा का नाम लेती है वो उतना ही मजबूत होता जाता है। यही बात दूसरे आतंकियों और आतंकी संगठनों पर भी लागू होती है। मुंबई पर हुए 26/11 हमले ने जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को पाकिस्तान के भीतर चल रहे आतंकी कैंपों में हीरो बना दिया और उसके मारे गए साथियों को शहीद। वहां इनकी मिसाल दी जाती होगी। और इन सब की वजह है सुर्खियां। आतंक को भाव देकर... उसके प्रति ज्यादा सर्तकता का इजहार कर हम अपनी ही कमजोरी को दिखाते हैं। वक्त पुरानी आतंकी घटनाओं को याद करने...उन पर आंसू बहाने का नहीं। आतंक को वगैर सुर्खियां दिए कुचलने का है। किसी आतंकी को शहीद और हीरो बनाने का नहीं...आतंक का ऑक्सीजन काटकर हमेशा के लिए आतंक के खात्मे का है। इसलिए आतंक के खिलाफ दुनिया की इस जंग हर आदमी सिपाही है और उसके मजूबत इरादे उसका हथियार।

Thursday, April 22, 2010

खेल के पीछे का खेल !

क्रिकेट के नए अवतार आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग ने खेल का मतलब ही बदल दिया। इंग्लैंड से निकला बल्ले और गेंद का ये खेल दुनिया के कोने-कोने में जा पहुंचा और हमारे यहां तो इसे धर्म के बराबर का दर्जा हासिल है। सचिन तेंदुलकर को लोग क्रिकेट का भगवान कहते हैं। सबका अपना-अपना नजरिया है। क्रिकेट का जुनून ऐसा कि जिस आदमी से पूछिए वही बता देगा कि हार की वजह क्या थी ? जीत कैसे मिलेगी? भले ही उसे अपने घर के बारे में ही ठीक से पता न हो लेकिन दुनिया की कौन सी क्रिकेट टीम का गणित क्या है...उसे अच्छी तरह से पता होगा। सबका अपना-अपना स्तर है...अपना-अपना विश्लेषण। मैं क्रिकेट नहीं देखता तो ये मेरी बदकिस्मती या खुशकिस्मती हो सकती है। लेकिन आप जो देख रहे थे क्या वो वाकई बल्ले और गेंद के सहारे ईमानदारी से खेला गया खेल था या खेल के नाम पर आपकी भावनाओं के साथ खेला जा रहा था। वनडे और टेस्ट को लेकर कई बार सवाल खड़े हुए हैं। कई तरह विवाद पैदा हुए हैं। आज के दौर में ये क्रिकेट का ही ग्लैमर है कि बच्चे वैज्ञानिक, इंजीनियर या डॉक्टर के बजाए धोनी और सचिन बनने का सपना पाल रहे हैं। किताब की जगह उनके हाथों में बैट-बॉल दिखती है। क्रिकेटरों की मोटी कमाई और शोहरत दिखती है...लेकिन उसके पीछे भी बहुत कुछ है। आईपीएल की धमाकेदार इंट्री ने क्रिकेट के भीतर एक नई संस्कृति को जन्म दिया। खेल के भीतर नए तरह के ग्लैमर का श्रीगणेश हुआ। इसमें टीमों की नीलामी, खिलाड़ियों की बोली, मजबूत मार्केटिंग रणनीति और क्रिकेट प्रेमियों के लिए चौके-छक्कों के साथ मजा देने के लिए चीयर लीडर्स का नाच सब है। ये तो वो है जो पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इसके अलावे भी बहुत कुछ है...जो क्रिकेट प्रेमियों को अभी जानना है। देश के हर हिस्से में आयकर विभाग की टीमें छापा मारकर आईपीएल का पूरा सच सामने लाने की कोशिश कर रही हैं। शायद ये सामने न आता अगर शशि थरूर और ललिल मोदी ट्विटर पर आमने-सामने नहीं होते। थरुर की तो विदेश राज्यमंत्री पद से छुट्टी हो गई है लेकिन अभी आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी की विदाई बाकी है। ऐसा लग रहा है कि इस खेल में सब कुछ फिक्स था यानी टीमों की नीलामी से लेकर बोली तक। कुछ मैचों के भी फिक्स होने की ख़बरे उड़ती-उड़ती आ रही हैं। आईपीएल के एक दफ्तर से तो करार संबंधी ही कागजात गायब है। कुछ और भी कागजातों के गायब होने की ख़बरें आ रही हैं। राजनीतिज्ञ भी अब यही कहते नज़र आ रहे हैं कि हमारा आईपीएल से कोई लेनादेना नहीं है...हम तो बस मैच देखने जाते हैं। आईपीएल पर कई आरोप लगे हैं जैसे- नीलामी प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं, नीलामी को फिक्स करने का आरोप, आईपीएल के जरिए रिश्तेदारों को फायदा, पैसे के आने-जाने के हिसाब में पारदर्शिता नहीं, विदेश स्थित बैंकों के जरिए लेन-देन, मैच फिक्सिंग के आरोप, सट्टेबाजी के आरोप और सबसे बड़ा सवाल तीन साल में कहां से आया बेशुमार धन। ये भी सामने आया कि एक टीम की बोली लगाने वालों को ये भी पता नहीं था कि वो किसके लिए बोली लगा रहे हैं यानि टीम का मालिक कौन होगा? तब क्रिकेट में अंडरवर्ल्ड के पैसे की बात भी सामने आई थी। अब बड़ा सवाल ये है कि इन सबके पीछे क्या सिर्फ ललित मोदी हैं? या मोदी सिर्फ मोहरा हैं और परदे के पीछे से चाल कोई और चल रहा है?

Tuesday, April 20, 2010

ये खतरा टल जाए !

आइसलैंड में ज्वालामुखी के फटने से फैली राख ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को चौपट करना शुरू कर दिया है। विमान कंपनियों पर इसका साफ असर दिख रहा है। दुनिया भर की विमान कंपनियों को रोज करीब 27 करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है। भारतीय विमान कंपनियों को भी अब तक एक अरब रुपये से अधिक का नुकसान हो चुका है। भारत के विभिन्न होटलों और एयरपोर्ट पर 40 हज़ार से अधिक यात्री फंसे हुए हैं। वेस्ट इंडीज में 30 अप्रैल से शुरू होनेवाले 20-20 वर्ल्ड कप पर भी संकट के बादल छाये हुए हैं। फुटबॉल, फॉर्मूला, एथलेटिक्स के करीब 150 आयोजन टाले जा रहे हैं। अगर बात इतनी तक रहती तो भारत के लिए कोई अधिक चिंता की बात नहीं थी। लेकिन ख़तरा इससे कहीं और बड़ा है। मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राख के बादल एक माह तक आसमान में बने रहे तो इसका मानसून पर असर पड़ सकता है। राष्ट्रीय मौसम केंद्र के महानिदेशक का कहना है कि राख के बादल जिस दिशा में बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगले एक पखवाड़े में वे मध्य एशिया को ढंक लेंगे। आइसलैंड के ज्वालामुखी से निकली राख ने अगर मानसून को किसी भी तरह से अपनी चपेट में ले लिया तो इसका भारत पर गंभीर असर पड़ेगा। भारत में मानसून के गड़बड़ाने का मतलब है पूरी अर्थव्यवस्था का पटरी से उतरना। भले ही कृषि क्षेत्र का हमारे सकल घरेलु उत्पाद में करीब 18 फीसदी का योगदान हो, लेकिन इसकी अप्रत्यक्ष भूमिका कहीं ज्यादा बड़ी और विस्तृत है। भारत में कृषि अपने आप में उत्पादन या रोजगार का साधन भर होने से कहीं ज्यादा जीवन जीने का जरिया है। तकरीबन 60 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। इसलिए मानसून के गड़बड़ाने का मतलब है अनुमान से कई गुना ज्यादा लोगों का प्रभावित होना यानि हमारी रोजमर्रा की समूची व्यवस्था का पलट जाना। हमारी 87 फीसदी खाद्य सुरक्षा, 40 फीसदी बिजली उत्पादन और 85 फीसदी से ज्यादा पेयजल की उपलब्धता मानसून पर ही टिकी है। पीने के पानी और भोजन की व्यवस्था अगर हमने किसी तरह से कर भी ली तो पशुओं का जीवन मुश्किल हो जाएगा। उद्योग धंधे चौपट हो जाएंगे, क्योंकि हर दिन उद्योगों के लिए भी 20,000 करोड़ गैलन पानी की जरूरत पड़ती है और यह आपूर्ति मानसून से ही होती है यानि पूरी व्यवस्था में कोहराम मच जाएगा। देश में खाद्यानों का उत्पादन कम होगा। साग-सब्जी नहीं उगेंगे यानि अनाजों की मांग बढ़ जाएगी और उत्पादन कम। फिर महंगाई आसमान पर होगी और खाने-पीने की जरुरी चीजें आम आदमी की पहुंच से दूर। ऐसी परिस्थितियां भूखमरी और गरीबी और बढ़ाएगी। हमारे यहां मानसून के मजबूत होने का मतलब है अर्थव्यवस्था का मजबूत होना और कमजोर होने का मतलब पर अर्थव्यवस्था का चरमराना। इसलिए, भगवान से हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए की आइसलैंड के ज्वालामुखी से निकले राख का साया मानसून से दूर ही रहे।

Thursday, April 15, 2010

हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-3)

देश में इस समय बड़ी बहस ये चल रही है कि आखिर नक्सलवाद का इलाज क्या है ? इसे कैसे खत्म किया जाए ? समाज का एक वर्ग सोचता है कि नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इनके सभी गढ़ों को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसमें वायु सेना की भी मदद ली जानी चाहिए यानि जिन इलाकों में सेना का जाना मुश्किल है वहां आसमान से बम वर्षा की जानी चाहिए। लेकिन अगर सरकार नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करती है तो इसमें काफी खून-ख़राबे की आशंका है। काफी निर्दोष लोग इसमें मारे जा सकते हैं। सेना और वायुसेना की ट्रेनिंग दूसरे तरह की होती है। इनका इस्तेमाल बाहरी दुश्मनों के लिए तो उत्तम है लेकिन देश के भीतर के दुश्मनों के लिए ठीक नहीं है। क्योंकी सेना आक्रमण करती है तो उसके अंजाम की चिंता नहीं करती...नुकसान की परवाह नहीं करती। शायद इसीलिए सरकार ने अब तक इस विकल्प पर विचार नहीं किया है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम ने साफ-साफ कहा कि नक्सलियों से निपटने के लिए अर्धसैन्य बलों के जवान और राज्य पुलिस काफी हैं। सरकार का ये फैसला काफी हद तक ठीक लगता है। हालांकि चिदंबरम की इस नीति का कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ लोग विरोध कर रहे हैं। क्योंकि इन इलाकों में लालगढ़ के सिर्फ सिपाही ही नहीं गरीब-मजदूर और मजबूर लोग भी हैं। यहां सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती नक्सलियों और आम आदमी में फर्क करने की होगी। क्योंकि नक्सली जिस तरह से लालगढ़ों में आम लोगों से मिले हुए हैं उनकी पहचान करना मुश्किल है और जब पहचान करने में इतनी मुश्किल होगी तो कितनों के साथ अन्याय होगा कहना मुश्किल है। अगर एक सही आदमी नक्सलियों के धोखे में मारा या पकड़ा गया तो दस आदमी सरकार और सैन्य बलों के खिलाफ खड़े हो जाएंगे। इसलिए इस समस्या का हल इसकी जड़ों से ही तलाशना होगा। वर्ना हम पेड़ से पत्ते साफ करते रहेंगे और नए पत्ते उगते रहेंगे। इसकी पहल राजनीति दलों और स्वयंसेवी संस्थाओं से होनी चाहिए। लोगों से जुड़ने का काम राजनीतिक पार्टियों का है इसलिए मुख्यधारा की पार्टियों को लालगढ़ में घुसपैठ कर जनता के दिलों में जगह बनानी चाहिए। स्वयंसेवी संस्थाओं को विकास की दौड़ में काफी पीछे छूट चुके इन इलाकों में उम्मीद की नई किरण जगानी चाहिए। स्कूल खोलना चाहिए। जन-जागरुकता अभियान चलाना चाहिए। इसके बाद बारी आती है प्रशासन की। प्रशासन को अपनी मौजूदगी का एहसान हर आदमी को कराना चाहिए यानि सरकारी योजनाओं को आम-आदमी तक पहुंचाने के लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए जिससे लोगों के मन में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ जो जहर भरा है वो खत्म हो। इसके बाद दमदार भूमिका हो सकती है पुलिस और बंदूक की। जो लोग इस काम में रुकावट डालने की कोशिश करें उनसे सख्ती से निपटना सरकार का काम है। देश को लालगढ़ मुक्त करना कोई आसान काम नहीं है और बहुत मुश्किल भी नहीं। लालगढ़ मुक्त करने में जो कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं वो पूरे मन से इस दिशा में काम करें ये जरुरी नहीं। अगर सबने समाज में अपनी भूमिका का ईमानदारी से पालन किया होता तो आज इतने लालगढ़ भारत के नक्शे पर दिखते ही नहीं। इनसे निपटना बहुत मुश्किल इस लिए नहीं है क्योंकि लालगढ़ के सूबेदारों के अपने-अपने एजेंडे और अपना-अपना इलाका है। शासन-व्यवस्था का उनके पास कोई ऐसा रोड़मैप नहीं है जो आज के युग में हजम होता हो। अगर है तो वो अब तक सामने नहीं आया है। इसलिए लालगढ़ के खात्मे की शुरूआत जड़ से शुरू होनी चाहिए न की पत्तों से।

Tuesday, April 13, 2010

हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-2)

भारत के अलग-अलग हिस्सों में पनपे लालगढ़ एक दिन में नहीं बने हैं। इसके लिए कोई एक शख्स भी जिम्मेदार नहीं है। 2007 जनवरी के बाद आतंक की आग में जितने लोग मारे गए उसके करीब तीन गुना से अधिक देश के भीतर पैदा हुए इस ‘सामाजिक आतंकवाद’ में मारे गए हैं। नक्सलवाद को सामाजिक आतंकवाद कहना ज्यादा ठीक रहेगा। क्योंकि यह समाज के भीतर और वर्तमान व्यवस्था के गर्भ से पैदा हुआ है। नक्सलवाद आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के अंतविरोध की कहानी है। यह विकास और प्रशासन की गैर-मौजूदगी के कारण उपजी समस्या है। इस नासूर के लिए देश के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों का काम सिर्फ वोट मांगना और सरकार बनाना ही नहीं हैं बल्कि जनता से जुड़ने का भी काम उन्हीं का है। लालगढ़ पैदा होने का मतलब है कहीं न कहीं उस इलाके में राजनीतिक शून्यता थी। वहां के लोगों का दुख-दर्द सुननेवाला कोई नहीं थी। वहां का आदमी मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था। इसी राजनीति शून्यता, सरकारी अमले की अकर्मण्यता ने दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्था के भीतर नक्सलियों के लिए जगह बनाया। नक्सलियों का दर्शन आम आदमी या कहें जनता को आगे कर पीछे से हिंसा की रणनीति के सहारे आगे बढ़ रहा है। नक्सली हाथों में बंदूक लेकर कितने गरीबों को उनका हक दिलवा चुके हैं? नक्सलियों के लालगढ़ में आधुनिक विकास की हवा कितनी पहुंची है? व्यवस्था के भीतर पैदा हुई इस नई व्यवस्था ने कितने लोगों को दो वक्त की रोटी दी है। कितने लोगों को स्कूल और कॉलेज भेजा है? नक्सली दर्शन की वकालत करनेवाले अक्सर यही तर्क देते हैं कि उन इलाकों में जा कर देखिए आम आदमी की क्या हालत है। ये सच है कि हमारी व्यवस्था ने उन इलाकों के विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया...जितना शहरी इलाकों पर। जिससे विकास की ताजी हवा वहां तक पहुंच सके… लेकिन उस इलाके में रहनेवाले लोग या कहें शहरी इलाकों से ताजी हवा खाकर पहुंचे लोगों ने वहां के लोगों को क्या दिया? बंदूक का दर्शन। मरने और मारने की शिक्षा। दो वक्त की रोटी और सत्ता में भागीदारी का सपना। ये सच है कि दो वक्त की रोटी किसी भूखे के लिए उसकी पहली जरुरत है। लेकिन दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकना और अपने दर्शन को हकीकत में बदलने का सपना देखना कहां कि इंसानियत है। सुरक्षाबलों के जवानों का मारा जाना पूरे देश ने जाना क्योंकि वो एक कानूनी व्यवस्था का हिंसा थे। जिसे समाज मानता है। उनके परिवारवालों के दुख-दर्द में पूरा देश रोया क्योंकि वो सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए नहीं बल्कि देश के भीतर पैदा हुए सामाजिक आतंकवाद के खात्मे के लिए गए थे। इस लड़ाई में माओवादी लड़ाके भी मारे जाते हैं और आम आदमी भी। लेकिन किसकी कौन कितनी ख़बर लेता है ये लालगढ़ में रहनेवाला आम आदमी अच्छी तरह से जानता है। सामाजिक आतंक के इन गढ़ों में रहनेवाले ज्यादातर लोग किसी शौक से या किसी दर्शन की वजह से नक्सलियों को समर्थन नहीं देते बल्कि उनकी मजबूरी है। इन इलाकों में नक्सलियों के विरोध का मतलब एक तरह से राज्य का विरोध है क्योंकि इन इलाकों में नक्सली समानांतर सरकार चलाने का दावा करते हैं। जन अदालतों के माध्यम से फैसले करते हैं...और हमदर्दी को लिए थोड़ा बहुत लोगों के साथ भी खड़े रहते हैं। लेकिन, देश के पिछड़े इलाकों के लोगों को ये दर्शन और बंदूक की राजनीति कितनी आगे ले जाएगी? क्या वगैर बंदूक के क्रांति संभव नहीं है? क्या सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बंदूक ही सबसे असरदार तरीका है? ये सच है कि दिल्ली ऊंची सुनती है। लेकिन गोलियों की आवाज़ भी सुनेगी ये जरुरी नहीं। दिल्ली तक अगर अपनी बात पहुंचानी है तो नक्सली नेताओं को बंदूक नहीं वार्ता का रास्ता चुनना चाहिए।

Monday, April 12, 2010

हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-1)

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए देश के सबसे बड़े नक्सली हमले ने माओवादियों की कार्यशैली और उनकी क्रांतिकारी सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ ने अपने 76 जवानों को खोया। ऐसे जवान जो अपनी रोजी-रोटी या कहें देश सेवा के लिए सीआरपीएफ में शामिल हुए। ये जवान भी कमोवेश वैसी ही पृष्ठभूमि से आते हैं जैसी पृष्ठभूमि से माओवादियों के लड़ाके आते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों में कोई ख़ास अंतर आपको नहीं दिखेगा। फिर इन जवानों की हत्या का क्या मतलब है? कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा “ये माओवादी हैं जिन्होंने राज्य को दुश्मन और संघर्ष को युद्ध का नाम दिया है। हमने इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।” चिदंबरम साहब ने जब दंतेवाड़ा हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की तो एक सुर में आवाज आई कि ये वक्त इस्तीफा देने का नहीं संघर्ष करने का है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नक्सली समस्या को सबसे बड़ी चुनौती बता चुके हैं। अगर मोटे पर देखा जाए तो हिंदुस्तान के 630 जिलों में से 180 नक्सलियों के शिकंजे में हैं। हिंदुस्तान में कई लालगढ़ तैयार हो चुके हैं। सबसे पहले बात छत्तीसगढ़ की। यहां के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, राजनांदगांव आदि के करीब 2300 से अधिक गांवों पर नक्सलियों का प्रभाव है। बस्तर में 300 गांव ऐसे हैं जहां कुछ वर्षों से न तो कोई पुलिस अधिकारी गया और न हीं प्रशासन का। यहां के तेरह हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत नक्सली चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ का अबूझमाढ़ इलाका इनका सबसे सुरक्षित ठिकाना है। करीब चार हज़ार किलोमीटर में फैला ये इलाका सुरक्षाबलों के लिए चक्रव्यूह की तरह है। इसके भीतर की स्थिति ये है कि यहां के 50 गांवों का अब तक कोई सर्वे नहीं हुआ है। 10 साल से इलाके में पुलिस के जवानों ने कदम तक नहीं रखा है। यहां सैकड़ों पुलिसवाले नक्सलियों की गोलियों का शिकार हुए हैं। आलम यह है कि कई थाना क्षेत्रों में नक्सलियों से बचने के लिए पुलिस के जवान सिविल ड्रेस में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बाद उससे सटे झारखंड का नंबर आता है। यहां के 24 में से 18 जिलों में नक्सलियों का दबदबा है। यहां तक की राजधानी रांची पर भी नक्सलियों का प्रभाव है। इस इलाके में नक्सलियों के मुख्य कमांडर हैं गणपति और किसन। वेंकटेश्वर राव उर्फ किसन और गणपति नक्सलियों की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। आंध्र प्रदेश का रहनेवाल किसन फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है। साथ ही दूसरी भाषाओं मसलन हिंदी, बांग्ला, उड़िया सहित कई भाषाओं का जानकार है। मीडिया से बातचीत भी अक्सर किसन ही करता है। वहीं, बांगाल का रहनेवाला गणपति क्षेत्र विस्तार, भविष्य की योजनाएं तैयार करना, दूसरे राज्यों के नक्सलियों से संपर्क और ऑपरेशन का आइडिया देने का काम करता है। आंधप्रदेश के करीमनगर, वारंगल, नालमला, पालनाडु और उत्तरी तेलंगाना में लाल आतंक पसरा हुआ है। वहीं, उड़ीसा से लगती सीमा पर इनकी गतिविधियां और प्रभाव काफी अधिक हैं। उड़ीसा के 17 जिले नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित हैं। महाराष्ट्र में भी एक अनुमान के मुताबिक 15 से 29 तक गुरिल्ला संगठन सक्रिय हैं। बिहार के 38 में से 34 जिलों में नक्सलियों का कम-ज्यादा असर है। करीब 150 प्रखंडों में उनकी जन अदालतें लगती हैं। बिहार के माओवादियों के नेपाली माओवादियों से रिश्तों के सबूत मिले हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुड़ा के करीब 350 गांव लाल आतंक की चपेट में हैं। कई गांवों में तो पुलिस का पहुंचना तक मुश्किल है। यूपी के सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जिले के करीब 600 गांवों पर नक्सलियों का साया है। अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो बालाघाट क्षेत्र के करीब तीन हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 100 गांवों में लाल झंडा दिखाई देता है। देश के भीतर न जाने ऐसे कितने और लालगढ़ बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। इन इलाकों में नक्सली अपनी हुकूमत चलाते हैं। अपनी अदालत लगाते हैं। फटाफट सबके सामने फैसले करते हैं। वहां रहनेवाले लोगों के मन में राज्य के खिलाफ जहर भरते हैं। सरकार से लोहा लेने के लिए लड़ाकों की भर्ती करते हैं और उनका तनख्वाह भी देते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर ये दूसरी हिंसक व्यवस्था को जगह कैसे मिली? लोकतंत्र दुनिया के सबसे अधिका शासन प्रणाली इसलिए माना जाता हैं क्योंकि इसमें समाज के सबसे कमजोर आदमी का भी पक्ष लिया जाता है। उसकी सरकार बनाने में भागीदारी होती है। लेकिन बंदूक और गोलियों के बल पर हिंदुस्तान में पैदा हो रहे लालगढ़ को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

Wednesday, April 7, 2010

ड्रामा अच्छा था...मजा आया !

करीब हफ्ते भर चले तमाशे ने मेरा जम कर मनोरंजन किया। मजा आ गया...लेकिन इस ड्रामे का आपने कितना मजा लिया? जी हां, शोएब मलिक-आएशा सिद्दीकी और सानिया का ड्रामा। शोएब पाकिस्तानी क्रिकेटर है और सानिया मिर्जा भारतीय टेनिस खिलाड़ी। आएशा सिद्दीकी हैदराबाद की एक लड़की। नाटक का पहला दृश्य शुरू होता है सानिया और शोएब के निकाह की ख़बर के साथ। न्यूज़ चैनलों पर दोनों के निकाह की ख़बर...कोई इन ख़बरों की पुष्टि के लिए तैयार नहीं। भारतीय न्यूज़ चैनल पाकिस्तानी चैनलों की ख़बरों पर नज़रें बनाए हुए थे...और भारतीय चैनल पाकिस्तानी चैनलों पर। दोनों देशों के संवाददाता ख़बरों को मामा-चाचा, जीजा-साला, पास-पड़ोस के सहारे आगे बढ़ा रहे थे। अगले दिन सानिया मिर्जा ने हैदराबाद में मिठाई बांटकर पत्रकारों से शोएब मलिक के साथ निकाह का ऐलान कर दिया। इसके बाद पाकिस्तान के सियालकोट यानी शोएब के पुस्तैनी घर के बाहर जमकर जश्न दिखा...वैसा ही जश्न जैसा शादियों में दिखता है...क्रिकेट और टेनिस के मिलन को लेकर प्रतिक्रिया लेने और देने का काम तेजी से शुरू हो गया। पाकिस्तान के बड़े अख़बार ने शोएब मलिक की मां के हवाले से लिखा कि सानिया के छोटे कपड़े उनकी सास यानी शोएब की अम्मा को पसंद नहीं हैं। वो नहीं चाहतीं कि शादी के बाद सानिया टेनिस खेले। पाकिस्तान टेनिस एशोसिएशन के एक बड़े अधिकारी ने कहा कि सानिया को अब पाकिस्तान की तरफ से खेलना चाहिए...वहीं के एक और अधिकारी ने उन्हें कोच बनाने का मशवरा दिया। यहां तक की उनके लिए एक पाकिस्तानी टेनिस पार्टनर का नाम भी सामने आ गया। जंग आर-पार की हो गई। सानिया भारत की या पाकिस्तान की। किस तरफ से खेलेंगी सानिया। उनकी कैंप पर तिरंगा होगा या चांद सितारा? सब अपनी-अपनी दलील दे रहे थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इसे भारत-पाक रिश्तों में एक नए अध्याय के रुप में देख रहे थे। इधर भारतीय राजनीतिक पार्टियां भी अपनी-अपनी राय दे रही थीं। कोई ये तर्क दे रहा था कि जब एक पाकिस्तानी से शादी कर लिया तो ऐसे में वो टेनिस में भारत का नेतृत्व कैसे कर सकती हैं? सानिया पर आर-पार की जंग चल ही रही थी कि अचानक आएशा सिद्दीकी ने एंट्री ले ली। हैदराबाद की रहनेवाली आएशा ने दावा किया की शोएब से उनका निकाह कई साल पहले हो चुका है...उनके पास सबूत भी हैं। कहानी में एकाएक नया मोड़...अब सानिया-शोएब और ‘वो’ की बात होने लगी। शोएब के पुराने बयान खोजे जाने लगे...पता चला शोएब ने कई साल पहले ही खुद को हैदराबाद का दामाद बताया था...लेकिन किसी का नाम नहीं लिया। न्यूज़ चैनलों ने अपने तेज-तर्रार रिपोर्टरों को हैदराबाद भेजा...शोएब और आएशा के रिश्तों का पोस्टमार्टम शुरू हो गया। इसी बीच शोएब के मुंह से आएशा का नाम भी एक पुराने इंटरव्यू में निकल आया। आएशा के परिवारवाले चीख-चीख कर कहने लगे उनके साथ धोखा हुआ है। शोएब ने उनकी बेटी को धोखा दिया है। उधर, शोएब के रिश्तेदारों ने ऐसे किसी भी निकाह से साफ इनकार कर दिया। इसी बीच आएशा और शोएब की शादी का निकाहनामा भी न्यूज़ चैनलों पर आ गया...दोनों देशों के मुस्लिम विद्वान निकाहनामे का मतलब और आगे की रणनीति बताने लगे। इसी बीच सानिया और शोएब की शादी की तारीख का भी ऐलान हो गया। मामला कोर्ट-कचहरी में ले जाने की बात चलने लगी। सिद्दीकी दंपत्ति के साथ-साथ अब आएशा भी फोन पर न्यूज़ चैनलों के माध्यम से अपनी बात रखने लगीं। हर गली-मुहल्ले में कौन सच्चा...कौन झूठा को लेकर बाज़ार गर्म हो गया। कुछ लोग ये भी कहते नज़र आए कि ऐसे में सानिया पर क्या बीत रही होगी? इसी बीच शोएब मलिक सीधे दुबई से हैदराबाद या कहें अपनी होनेवाली ससुराल पहुंचते हैं। घर में क्या बातें होती हैं? किसी को पता नहीं। न्यूज़ चैनलों के कैमरे वगैर पलक झपकाए शोएब और सानिया के घर के भीतर की तस्वीरें कैद करने के लिए चौकस थे। पहली ख़ास तस्वीर बालकनी की कैद होती है जिसमें सानिया कुछ नाराज़ सी दिखती हैं...उनकी मां उन्हें कुछ समझाने की कोशिश करती हैं...बगल में शोएब खड़े हैं। ये तस्वीर घर के भीतर तनाव की थ्योरी देती है। शाम में कमरे का दरवाजा थोड़ा सा खुलता है और फिर बंद हो जाता है। इसमें शोएब और सानिया दिखते हैं...मतलब निकाला जाता है कि दोनों डांस कर रहे हैं। घर के भीतर शादी का जश्न मनाया जा रहा है। न्यूज़ चैनलों के रिपोर्टर अपनी-अपनी सेटिंग के हिसाब के ख़बरें निकाल रहे हैं...और दोनों देशों की जनता तक हैदराबाद में चल रही हर हलचल की ख़बर पहुंच रही है। अगले दिन शोएब और सानिया पहली बार मीडिया के सामने एक साथ सीना ताने आते हैं और कहते हैं- आएशा झूठी है...कोई निकाह नहीं हुआ...अगर वो सच्ची है तो सामने क्यों नहीं आती? सानिया ने भी कहा- मैं जानती हूं..सच क्या है। ये बात आएशा के परिवारवालों को हज़म नहीं हुई। पुलिस में केस दर्ज करवा दिया गया...शोएब का पासपोर्ट पुलिस ने जब्त कर लिया। इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की गिरफ्तारी की बातें होने लगी। आएशा ने भी सबूत के तौर पर पुलिस को शोएब के कपड़े, फोटो, सीडी और न जाने क्या-क्या दिया। दोनों के साथ होटल में ठहरने और गर्भपात की बातें भी सामने आने लगीं। उधर, शोएब और सानिया की शादी होगी या नहीं इस पर करोड़ों का सट्टा लग गया। सानिया निकाह के वक्त गरारा पहनेंगी या शरारा इस पर पैसे लगने लगे। ये नाटक इतना हिट था की टीवी चैनलों पर देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला भी हाशिए पर जाता दिखा...लेकिन ख़बर दिखानी मजबूरी थी क्योंकि 76 जवान शहीद हुए थे। इससे पहले देश ने इतना बड़ा नक्सली हमला पहले नहीं देखा था। अगले दिन, एकाएक ख़बर आई थी शोएब मलिक ने महा आएशा सिद्दीकी को तलाक दे दिया है। यानी उस महा सिद्दीकी को जिसे वो आपा कहते थे...जिसके साथ शादी की बात से मुकर रहे थे। उसे तलाक दे दिया और मुआवजा भी देने का ऐलान कर दिया। ये खेल हुआ दोनों ओर के मध्यस्थों की वजह से। एक मध्यस्थ ने तो यहां तक कहा कि आएशा हमारी बच्ची है हम उसके लिए अच्छा लड़का देख कर शादी कर देंगे। दूसरे मध्यस्थ ने कहा कि शोएब पर दबाव डाल कर तलाक के लिए जैसे-तैसे राजी करवाया गया। सबको अपनी वाह-वाही लुटनी है। इस बीच एक और ख़बर निकली की शोएब और सानिया का निकाह तो पहले ही दुबई में हो चुका है...अब तो बस औपचारिकता बाकी है। 15 अप्रैल को भोज-भात होगा। रिश्तों का पोस्टमार्टम करनेवाले रिपोर्टर अब 15 अप्रैल को बनने वाले पकवानों पर रिसर्च कर रहे हैं। कुछ दूल्हा-दुल्हन की पोशाक पर रिसर्च कर रहे हैं। आएशा खुश की तलाक मिल गया...शोएब खुश की फंसते-फंसते बचे...सानिया खुश की कोई मिल गया...आप भी खुश क्योंकि बिना टिकट का मनोरंजन हुआ। ऑल इज वेल।