Tuesday, April 13, 2010

हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-2)

भारत के अलग-अलग हिस्सों में पनपे लालगढ़ एक दिन में नहीं बने हैं। इसके लिए कोई एक शख्स भी जिम्मेदार नहीं है। 2007 जनवरी के बाद आतंक की आग में जितने लोग मारे गए उसके करीब तीन गुना से अधिक देश के भीतर पैदा हुए इस ‘सामाजिक आतंकवाद’ में मारे गए हैं। नक्सलवाद को सामाजिक आतंकवाद कहना ज्यादा ठीक रहेगा। क्योंकि यह समाज के भीतर और वर्तमान व्यवस्था के गर्भ से पैदा हुआ है। नक्सलवाद आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के अंतविरोध की कहानी है। यह विकास और प्रशासन की गैर-मौजूदगी के कारण उपजी समस्या है। इस नासूर के लिए देश के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों का काम सिर्फ वोट मांगना और सरकार बनाना ही नहीं हैं बल्कि जनता से जुड़ने का भी काम उन्हीं का है। लालगढ़ पैदा होने का मतलब है कहीं न कहीं उस इलाके में राजनीतिक शून्यता थी। वहां के लोगों का दुख-दर्द सुननेवाला कोई नहीं थी। वहां का आदमी मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था। इसी राजनीति शून्यता, सरकारी अमले की अकर्मण्यता ने दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्था के भीतर नक्सलियों के लिए जगह बनाया। नक्सलियों का दर्शन आम आदमी या कहें जनता को आगे कर पीछे से हिंसा की रणनीति के सहारे आगे बढ़ रहा है। नक्सली हाथों में बंदूक लेकर कितने गरीबों को उनका हक दिलवा चुके हैं? नक्सलियों के लालगढ़ में आधुनिक विकास की हवा कितनी पहुंची है? व्यवस्था के भीतर पैदा हुई इस नई व्यवस्था ने कितने लोगों को दो वक्त की रोटी दी है। कितने लोगों को स्कूल और कॉलेज भेजा है? नक्सली दर्शन की वकालत करनेवाले अक्सर यही तर्क देते हैं कि उन इलाकों में जा कर देखिए आम आदमी की क्या हालत है। ये सच है कि हमारी व्यवस्था ने उन इलाकों के विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया...जितना शहरी इलाकों पर। जिससे विकास की ताजी हवा वहां तक पहुंच सके… लेकिन उस इलाके में रहनेवाले लोग या कहें शहरी इलाकों से ताजी हवा खाकर पहुंचे लोगों ने वहां के लोगों को क्या दिया? बंदूक का दर्शन। मरने और मारने की शिक्षा। दो वक्त की रोटी और सत्ता में भागीदारी का सपना। ये सच है कि दो वक्त की रोटी किसी भूखे के लिए उसकी पहली जरुरत है। लेकिन दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकना और अपने दर्शन को हकीकत में बदलने का सपना देखना कहां कि इंसानियत है। सुरक्षाबलों के जवानों का मारा जाना पूरे देश ने जाना क्योंकि वो एक कानूनी व्यवस्था का हिंसा थे। जिसे समाज मानता है। उनके परिवारवालों के दुख-दर्द में पूरा देश रोया क्योंकि वो सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए नहीं बल्कि देश के भीतर पैदा हुए सामाजिक आतंकवाद के खात्मे के लिए गए थे। इस लड़ाई में माओवादी लड़ाके भी मारे जाते हैं और आम आदमी भी। लेकिन किसकी कौन कितनी ख़बर लेता है ये लालगढ़ में रहनेवाला आम आदमी अच्छी तरह से जानता है। सामाजिक आतंक के इन गढ़ों में रहनेवाले ज्यादातर लोग किसी शौक से या किसी दर्शन की वजह से नक्सलियों को समर्थन नहीं देते बल्कि उनकी मजबूरी है। इन इलाकों में नक्सलियों के विरोध का मतलब एक तरह से राज्य का विरोध है क्योंकि इन इलाकों में नक्सली समानांतर सरकार चलाने का दावा करते हैं। जन अदालतों के माध्यम से फैसले करते हैं...और हमदर्दी को लिए थोड़ा बहुत लोगों के साथ भी खड़े रहते हैं। लेकिन, देश के पिछड़े इलाकों के लोगों को ये दर्शन और बंदूक की राजनीति कितनी आगे ले जाएगी? क्या वगैर बंदूक के क्रांति संभव नहीं है? क्या सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बंदूक ही सबसे असरदार तरीका है? ये सच है कि दिल्ली ऊंची सुनती है। लेकिन गोलियों की आवाज़ भी सुनेगी ये जरुरी नहीं। दिल्ली तक अगर अपनी बात पहुंचानी है तो नक्सली नेताओं को बंदूक नहीं वार्ता का रास्ता चुनना चाहिए।

1 comment:

scocator said...

भाग तीन में क्या लिखिएगा? कुछ अपने अनुभव भी तो लिखिए।