Monday, March 9, 2009

कुछ भी तो नहीं बदला...

पिछले कई वर्षों से मैं बिहार नहीं गया था, लेकिन इस बार मौका मिला। मेरा सफर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से शुरू हुआ... ट्रेन करीब 3 घंटे लेट थी। ट्रेनों का लेट होना हमारे यहां सामान्य बात है। आमने-सामने की सीट पर कॉलेजों में पढ़नेवाले छात्र बैठे थे। ये बिहार का निम्न मध्यमवर्ग था जिसके सपने आसमान में उड़ने के थे...बिहार के लिए कुछ करने का इरादा था। इनके पास लैपटॉप, मोबाइल फोन जैसी चीजें भी थीं। पूरी दुनिया से बेखबर इनमें से कोई गाना सुनने में मस्त था...कोई अपने लैपटॉप पर कुछ सर्च करने में लगा हुआ था...और कोई न्यूज पढ़ने में मग्न था। गाड़ी भी अपनी रफ्तार से चल रही थी। दिल्ली से अलीगढ़ के बीच तो सब अपने में मग्न थे, लेकिन कुछ ही मिनटों में तीन बार ट्रेन के रुकने ने एक-दूसरे को
करीब ला दिया। इनमें से एक बोला "लालू यादव ने संसद में कहा कि हमने भारतीय रेल को हाथी से चीता बना दिया...यार मुझे तो लगता है उन्होंने घोड़े को गदहा बना दिया...तीन घंटे ट्रेन का लेट होना कोई मायने रखता है...जगह-जगह रुक रही है। सपने जापान की तरह बुलेट ट्रेन चलाने के हैं, लेकिन जो चल रही है उसकी हालत सुधारने की कोई बात नहीं कर रहा है।
देखिएगा पटना पहुंचे-पहुंचे जरुर 6-7 घंटे लेट हो जाएगी।" दूसरे ने बीच में ही कहा कि नेताओं ने तो बिहार का सत्यानाश कर दिया है। जो बिहार कभी इतना धनी और संपन्न हुआ करता था...जहां पढ़ने देश के कोने-कोने से छात्र आते थे...वहां के लड़के अब सीधे ट्रेन पकड़ कर बिहार से बाहर निकल जाते हैं, उन्हें बिहार में अपना भविष्य दिखाई नहीं देता। यही वजह है कि हमलोग अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गए हैं और जो एक बार यहां से निकल जाता है वो शायद ही वापस लौटता है। उस लड़के की बात में दर्द भी था और दम भी। बिहार के जितने लोगों से मैं दिल्ली और दूसरी जगहों पर मिला हूं, कोई वापस जाने का नाम नहीं लेता। ज्यादातर अपना भविष्य दूसरी जगहों पर ही तलाशते हैं। अचानक मैंने पूछा, " बिहार के लिए क्या किया जा सकता है ? " सबकी अपनी-अपनी राय थी। कोई नहरों के जाल बनाने की बात कर रहा था...कोई कल-कारखाने लगाने की...कोई लॉ-ऑडर को ठीक करने की। पूरी रात और दिन बातों में ही कट गया। मेरा स्टेशन डुंमराव आनेवाला था...वाकई अब तक ट्रेन करीब साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी थी। वहां से मुझे करीब बीस किलोमीटर दूर गंगा के किनारे एक गांव में जाना था। रास्ता परिचित था...एक लंबे समय के बाद इस रास्ते से गुजर रहा था इसलिए एक-एक चीज को याद करने में लगा हुआ था। सब कुछ वही था...कुछ ज्यादा नहीं बदला। अब मिनी बस और जीप के साथ ऑटो भी इस रुट पर आ चुके थे। जिस रास्ते से मैं गुजर रहा था...रोड़ की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया था। बीस किलोमीटर का सफर 2 घंटे में पूरा करके मैं अपने गांव पहुंच चुका था। वहां गजब की शांति थी, रह-रह कर फूलों की खूशबू आ रही थी, सामने ही कई किलोमीटर तक चारों ओर गेहूं और चने की फसल भी लहलहा रही थी। बस जिस एक चीज की वहां कमी खल रही थी वो थी लोगों की...ज्यादातर लोग वहां से जा चुके थे।

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