Tuesday, February 18, 2014

वोट के लिए नफरत की राजनीति!



मार्च के पहले सप्ताह में चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान करने की तैयारी कर रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का अपना मिजाज है। यहां की राजनीति के कई रंग ऐसे हैं, जो हमारा सर दुनिया के सामने ऊंचा कर देते हैं, तो कुछ ऐसे भी जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर डेंट की तरह हैं। राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा काम है, चुनाव लड़ना और सरकार बनाना। इसके लिए राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने हिसाब से वोट बैंक साधने के लिए गोटियां चलती हैं।


दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रणनीति है- झाड़ू चलाओ और झाड़ू चमकाओ। दिल्ली के लोगों के हवाई सपने दिखा कर आम आदमी पार्टी सत्ता में तो आ गईं, लेकिन नतीजा क्या निकला? 48 दिन बाद भी केजरीवाल ने जनलोकपाल का बहाना बना कर अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया यानि उस जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए, जिसके लिए जनता ने उन्हें चुना था। खैर, सूबा तो संभला नहीं और केंद्र संभालने की रणनीति बनाने में आम आदमी पार्टी के सूरमा लगे हैं।


यूपी की राजनीतिक लड़ाई सबसे दिलचस्प है। वैसे कहा भी जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर ही आता है। यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं और यहां के चुनावी अखाड़े में हर वो महारथी है जो दिल्ली की कुर्सी का दावेदार है। कई सीटों पर सीधा मुकाबला कांग्रेस, बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवारों के बीच होगा। कुछ अहम सीटों पर आम आदमी पार्टी भी अपने उम्मीदवार उतार कर चुनावी मैदान में गर्मी लाने की पूरी कोशिश करेगी।


यूपी का राजनीतिक इतिहास गवाह रहा है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए राजनीतिक पार्टियों ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश की है। पिछले साल अगस्त के आखिरी हफ्ते में जिस तरह से मुजफ्फरनगर नफरत की आग में जला, हज़ारों लोग बेघर होकर राहत कैंपों में पहुंच गए, इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कड़कड़ाती ठंड में दम तोड़ने वाले मासूमों का असली गुनहगार कौन है? सिस्टम या सियासत। सवाल ये भी उठता है कि आखिर दंगों को रोकने के लिए समय पर ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? जब हिंसा की आग ठंडी हो गईं, तो हर पार्टी का बड़ा नेता राहत कैंपों में पहुंचकर पीड़ितों का दर्द समझने और महसूस करने के लिए पहुंचने लगा। उनका घर उजड़ा था, अपने बिछड़ गए थे और नेताओं को चिंता अपने वोट बैंक की थी। इसमें कोई शक नहीं कि समझने, समझाने के पीछे का असली खेल एक बड़े वोट बैंक को साधना भी रहा होगा, क्योंकि यूपी की राजनीति में ये तपका किसी का भी खेल बना या बिगाड़ सकता है। शायद, इसलिए कोई दर्द के रिश्ते से अपना नाता जोड़ रहा था, तो कोई अपनी कट्टर छवि की नुमाइश करके वोटों के नए धुव्रीकरण का रास्ता तलाश रहा था।


अगर यूपी में सक्रिय ज्यादातर राजनीतिक दलों और बड़ी राजनीतिक हस्तियों के इतिहास को देखा जाए तो एक दूसरी तस्वीर ही सामने आती है। मुलायम सिंह यादव अगर इतने ताकतवर नेता बने तो इसका श्रेय नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन के चलते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी जाता है। उससे पहले मुलायम की सियासी ताकत बहुत सीमित थी, लेकिन राम मंदिर आंदोलन के दौरान बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उनके बयानों ने उन्हें मौलाना मुलायम की उपाधि दिलवा दी, बल्कि थोक मुस्लिम वोटों का भी हकदार बना लिया। इसके बाद तो फिर यादव और मुस्लिम वोट बैंक की बदौलत साइकिल ने जो रफ्तार पकड़ी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बीजेपी 1989 विधानसभा चुनाव में सिर्फ 57 सीटें जीत पाई थी और उसका वोट प्रतिशत रहा सिर्फ 11 फीसदी। लेकिन, दो साल बाद 1991 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिले 31 फीसदी वोट और 221 सीटें। इसके पीछे वजह सिर्फ एक ही रही- सांप्रदायिक धुव्रीकरण। राम मंदिर आंदोलन ने इस दौर में यूपी को पूरी तरह से धार्मिक आधार पर बांट दिया था। इस खेल में मारा तो आम आदमी जा रहा था और वोट की फसल काटने के लिए नेता अपने-अपने तरीके से रणनीति बनाने में जुटे थे। गुजरात को अगर देखा जाए तो, गोधरा कांड के बाद वहां जिस तरह से वोटों का धुव्रीकरण हुआ, उसने बीजेपी को अजेय बना दिया। 2002 से लेकर 2012 के बीच हुए तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी का वोट प्रतिशत 49 फीसदी तक पहुंच गया। हर सियासी पार्टी ने चुनावों में अपने-अपने हिसाब से गोटियां फैला रखी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लोगों के पास अभी वक्त है, सभी राजनीतिक पार्टियों के असली चरित्र को समझने का? उनके काम-काज का हिसाब करने का?


Friday, February 7, 2014

तेलंगाना का अग्निपथ


तेलंगाना को लेकर हर सियासी पार्टी अपने-अपने नफे-नुकसान का हिसाब लगा रही है। अलग राज्य की मांग को लेकर हिंसा और उपद्रव हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। अभी जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जाता है, उसमें आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आते हैं। कभी ये इलाका निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा हुआ करता था। आजादी के बाद निजाम की रियासत खत्म कर हैदराबाद राज्य का गठन किया गया। 1956 में हैदराबाद का हिस्सा रहे तेलंगाना को नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया। दरअसल, चालीस के दशक में ही इस इलाके में कम्युनिस्टों ने अलग तेलंगाना की आवाज को बुलंद किया। तब इस आंदोलन का मकसद भूमिहीनों को जमीन का मालिक बनाना था। लेकिन, ये आंदोलन जल्दी ही कमजोर पड़ गया और धीरे-धीरे इस इलाके में नक्सलियों का प्रभाव बढ़ने लगा। उसके बाद, फिर अलग तेलंगाना की आवाज 1969 में उठी। जिसका नेतृत्व कांग्रेस के चन्ना रेड्डी ने किया था। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तेलंगाना प्रजा समिति बनाई। लेकिन, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में उनकी फिर कांग्रेस में वापसी हुई और उन्हें आंध्र का मुख्यमंत्री बनाया गया। चेन्ना रेड्डी के बाद तेलंगाना क्षेत्र से आए पीवी नरसिंह राव भी सूबे के मुख्यमंत्री बने। सियासी बिसात पर तेलंगाना के लोग मोहरे की तरह इस्तेमाल होते हैं। नेताओं ने अलग राह पकड़ी और आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। लेकिन, के चंद्रशेखर राव ने इस आंदोलन को नई धार दी। 2001 में टीडीपी से अलग होकर चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने टीआरएस का समर्थन करते हुए फायदा उठाया और चंद्रशेखर राव को केंद्र में मंत्री भी बनाया। लेकिन, चंद्रशेखर राव को अपनी सियासी जमीन पर किए गए वादे याद रहे और वो तेलंगाना के मुद्दे पर यूपीए गठबंधन से अलग हो गए।
   कहते हैं राजनीति में वक्त सबसे बड़ा पहलवान होता है। आज अलग तेलंगाना के विरोध में जो सियासी तूफान खड़ा हुआ है, उसकी एक बड़ी वजह इस मुद्दे को लगातार लटकाए रखना भी है, अगर चुनावी नफा-नुकसान से ऊपर उठ कर बंटवारे का सही समय पर फैसला हुआ होता तो शायद आज ये नौबत नहीं आती। कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी के साथ अपने रिश्ते भी बुरी तरह से खराब कर लिए हैं। ऐसे में, सीमांध्र में तो कांग्रेस की सियासी जमीन काफी हद तक खिसकती दिख ही रही है, तेलंगाना क्षेत्र में भी कांग्रेस को इसका ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा है। अलग तेलंगाना बनने का पूरा श्रेय टीआरएस लेने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी, क्योंकि आंदोलन की जमीन तो उसी की है। चंद्रबाबू नायडू हों या जगन मोहन रेड्डी, चंद्रशेखर राव हों या फिर किरण कुमार रेड्डी सभी अपने सियासी चश्में से अगले चुनाव की ओर देख रहे हैं। लेकिन, सियासत से हट कर एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या अलग तेलंगाना बनने से वहां के लोगों की किस्मत का बंद दरवाजा खुलेगा?
   केंद्र हैदराबाद को अगले 10 वर्ष तक सीमांध्र और तेलंगाना की साझा राजधानी बनाना चाह रहा है। असली लड़ाई हैदराबाद को लेकर ही है। दोनों पक्षों में से कोई भी हैदराबाद को अपने हाथ से छिटकने नहीं देना चाहता है। दरअसल, हैदराबाद शहर और उसके पास के इलाके से राज्य के राजस्व का 55 प्रतिशत हिस्सा आता है यानी करीब 40 हज़ार करोड़ रुपये। इसी तरह केंद्र सरकार को भी आंध्र प्रदेश से मिलने वाले राजस्व का करीब 65 फीसदी हिस्सा इसी शहर से मिलता है। स्थानीय कर के रुप में भी इसी शहर से लगभग 15 हज़ार करोड़ रुपए वसूले जाते हैं। इसीलिए, सूबे की अर्थव्यवस्था की इस धूरी को कोई अपने हाथ से खिसकने नहीं देना चाहता।
   हैदराबाद से निकल कर अगर तेलंगाना के दूसरे हिस्सों को देखा जाए तो तस्वीर बिल्कुल अलग है। किसानों की हालत अच्छी नहीं है। प्रकृतिक संसाधनों के मामले में भले ही ये इलाका संपन्न हो, इसके बावजूद विकास की दौड़ में काफी पिछड़ा हुआ है। नक्सलियों के ज्यादातर बड़े कमांडर तेलंगाना इलाके से ही आते हैं। अगर करीमनगर जिले को ही देखा जाए तो यहां से मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति, पुल्लुरी प्रसाद राव, थिप्परी तिरुपति, मल्लाजुला वेणुगोपाल, मल्लराजी रेड्डी जैसे नक्सली कमांडर आते हैं। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि कहीं तेलंगाना भी नक्सलियों का नया गढ़ न बन जाए। छत्तीसगढ़ और झारखंड को बने 13 साल हो गए हैं लेकिन, अभी भी लाल आतंक का खौफ पहले की तरह ही बरकरार है। छत्तीसगढ़ और झारखंड दोनों ही खनिज संपदा के मामले में बहुत धनी हैं। इसके बावजूद वहां के आम-आदमी के जन-जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।
   छोटे राज्यों के गठन के पीछे तर्क दिया जाता है कि सूबे की राजधानी से दूर-दराज के इलाकों तक विकास की हवा और सरकारी नीतियों का फायदा आम-आदमी तक नहीं पहुंच पाता है, इसलिए वो विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। इस असंतुलन को दूर करने के लिए छोटे राज्यों की वकालत की जाती है। तेलंगाना क्षेत्र को लोगों को भी राजनीति के महारथियों ने बड़े-बड़े सपने दिखाए हैं। गरीब की उम्मीद कभी खत्म नहीं होती। क्योंकि उम्मीद पालने के लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। तेलंगाना क्षेत्र के लोग फिर सपने को घोड़े पर सवार हैं। इन्हें उम्मीद है कि अलग तेलंगाना राज्य बनने से शायद इनकी बंद किस्मत का दरवाजा खुल जाए। कुछ ऐसा ही सपना झारखंड और छत्तीसगढ़ के गठन से पहले वहां के लोगों ने भी देखा था। लेकिन दोनों राज्यों के गठन के 13 साल बाद भी वहां के लोगों को गरीबी और फटेहाली से आजादी नहीं मिल पाई है। झारखंड और छत्तीसगढ़ में विकास तो दूर, कई नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। नए राज्यों के गठन से कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तो जरुर हुई, लेकिन आम आदमी ने विकास और अपने दिन बदलने का जो सपना देखा था वो पूरा नहीं हुआ। ऐसे में जरुरी है कि सरकारी नीतियों का स्वरुप और क्रियान्वयन ऐसा हो, जिससे विकास की बयार राज्य के कोने-कोने तक पहुंचे। सूबे की राजधानी से सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव में रह रहे आम आदमी को ये महसूस न हो कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है या उस तक सरकारी योजनाओं का फायदा कम पहुंच रहा है, वो विकास की दौड़ में पिछड़ रहा है।

Sunday, September 12, 2010

आज का अयोध्या

अयोध्या यानि भगवान राम की जन्मभूमि। अयोध्या यानि यूपी के फैजाबाद जिले का एक इलाका। अयोध्या यानि बाबरी मस्जिद। अयोध्या यानि भारतीय राजनीति सबसे गर्म मुद्दा। अयोध्या यानि करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का केंद्र। अयोध्या के जितने मायने निकाले जाए कम हैं। ये एक ऐसी नगरी है जिसे पहचान की जरुरत नहीं बस तर्क के हिसाब से उसे अपने सांचें में फिट कर लीजिए। 2010 में अयोध्या फिर रणभूमि में तब्दील होने लगा है। 24 सितंबर को इलाहाबाद हार्इकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले पर देश के हर छोटे-बड़े आदमी की नज़रें लगी हुई हैं। इस तारीख को अदालत फैसला देगी कि अयोध्या किसका ? दरअसल, बाबरी मस्जिद पर मालिकाना हक का मासला 1949 से अदालत में है।

भारतीय जनता पार्टी, विश्वहिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों का दावा है कि जिस जगह बाबरी मस्जिद थी वहां पहले मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई । इन संगठनों का कहना है कि वह स्थान भगवान राम का जन्म स्थान है। दूसरी ओर मुस्लिम संगठनों का कहना है कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि वहां पहले मंदिर था। 1949 से लेकर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने तक जो भी हुआ वो पुलिस, सुरक्षा बलों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुआ। मंदिर में ताला लगाने, नमाज़ पर पाबंदी, पूजा की इजाज़त जैसे तमाम फ़ैसले आज़ाद भारत के धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने लिए थे।

बीजेपी बाबरी मस्जिद विवाद के लिए तीन तरह के हल की बात करती है। एक, अदालत के फ़ैसले पर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। दूसरा, मुस्लिम समुदाय से बात की जाए और वे विवादित स्थल पर अपना दावा छोड़ दें। तीसरा, संसद में क़ानून बनाकर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। अब 24 सितंबर को कोर्ट अपना फैसला देगी। फैसला चाहे जिसके पक्ष में हो तनाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, अयोध्या में धारा 144 अभी से लगा दी गई है। कर्फ्यू की आशंका से वहां के लोगों ने अभी से राशन-पानी घरों में जमा करना शुरू कर दिया है क्योंकि यहां के लोगों के जहन में 1992 की यादें अभी ताजी हैं।

अयोध्या में मंदिरों के बाहर पूजा के लिए फूल-माला, अगरबत्ती जैसी चीजें बेचने का काम वहां का ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। कई मुस्लिम तो खड़ाऊ की दुकानों के मालिक भी हैं इसी तरह मस्जिदों के बाहर फूलों की चादर बेचने के काम में कई हिंदू जुटे हैं। ये अयोध्या के लोगों का स्थानीय प्रेम है जिसे शायद बाहरवाले नहीं समझ सकते। अयोध्या सिर्फ हिंदुओं की नगरी है ये कहना बिल्कुल गलत है। यहां मुस्लिम भी बड़ी संख्या में रहते हैं। सिर्फ़ अयोध्या में ही करीब 85 मस्जिदें मौजूद हैं और अधिकतर में अब भी नमाज़ अदा की जाती है। बहुत सी जगहों पर मंदिर और मस्जिद साथ- साथ हैं। अयोध्या की ऐतिहासिक औरंगज़ेबी मस्जिद के ठीक पीछे सीता राम निवास कुंज मंदिर भी है। इन दोनों के बीच सिर्फ एक दीवार है। आलमगीरी मस्जिद मुगल काल में बनी थी। वहां मस्जिद के पास एक दरगाह भी है। अयोध्या की हुनमान गढ़ी, आचार्यजी का मंदिर और उदासीन आश्रम के लिए तत्कालीन मुसलमान शासकों ने ज़मीन दी थी। हनुमान गढ़ी के निर्माण के लिए ज़मीन अवध के नवाब ने दी थी। शायद इसीलिए आज भी रोज़ाना एक मुसलमान फकीर को गढ़ी की ओर से कच्चा खाना दिया जाता है।

अयोध्या हमेशा से ही जंग का मैदान रहा है। लेकिन जब भी हालात तनावपूर्ण हुए यहां के आम आदमी ने हमेशा अमन के लिए दुआ मांगी। यहां के मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की ध्वनि साथ-साथ निकलते हैं। चाहे आज का अयोध्या हो या कल का...सत्ता के लिए सबने इसे लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया है जिसकी आग में यहां का आम आदमी झुलसा है। जरुरत अयोध्या को समझने की है। उसके दर्द को महसूस करने की…आखिर आधुनिक विकास की बयार यहां भी बहनी चाहिए। यहां के लोगों तक उसके झोंके पहुंचने चाहिए। आस्था मन के भीतर होती है...प्रेम दिल के भीतर होता है...ये वगैर दिखाए और बताए भी अपने अराध्य तक पहुंच जाते हैं।

भगवान अब माफ भी करो !

दिल्ली पर इन दिनों इंद्र देव कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं। सुबह हो या शाम, रात हो या दिन कभी भी बरसने लगते हैं। इंद्र देवता की इस मेहरबानी से दिल्ली में अफसरों से लेकर आम आदमी तक सब परेशान हैं। अफसर इस लिए परेशान हैं क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों को फाइनल टच दिया जाना बाकी है और आम आदमी इस लिए परेशान है क्योंकि उसे बारिश की वजह से कहीं आने-जाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लंबे-लंबे ट्रैफिक जाम में उसे रोज घंटों गुजारने पड़ते हैं। हालत ये हो गई है कि बूंद-बूंद को तरसने वाली यमुना नदी भी राजधानी में कहर बरपा रही है। यमुना नदी दिल्ली में अपना 32 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ेगी या नहीं...ये कुदरत पर छोड़ दीजिए क्योंकि हमने यमुना के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है न कि उसने हमारे क्षेत्र में...नतीजा तो भुगतना होगा। कॉमनवेल्थ आयोजन समिति तो हर दिन इंद्र देव से यही प्रार्थना कर रही होगी कि प्रभू बहुत हुआ...अब शांत हो जाओ...
महाभारत काल में ब्रजवासियों को इंद्र के क्रोध का सामना करना पड़ा। इंद्र देव ने मूसलाधार बारिश से ब्रजवासियों को तहस-नहस करने का फैसला किया...तब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा कर वहां के लोगों की रक्षा की। अगर इंद्र देव ऐसे ही बरसते रहे तो कॉमनवेल्थ गेम्स को कौन बचाएगा ? क्या चीन की तर्ज पर बादलों को आसमान में ही नष्ट या इधर-उधर करने की कोशिश की जाएगी ? या फिर स्टेडियम के ऊपर कोई गोवर्धननुमा इंतजाम किए जाएंगे ? वक्त बहुत कम बचा है ! लेकिन इतना भी कम नहीं कि कुछ किया ही न जा सके।
कॉमनवेलथ की जब भी बात आती है तो अक्सर राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए एशियाड खेलों की चर्चा की जाती है। एशियाड खेल1982 यानि आज से करीब 28 साल पहले दिल्ली हुए थे। जिन लोगों ने उस दौर को देखा है उनका कहना है कि पूरी दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया गया था। कई नए स्टेडियम बनाए गए...सड़के बनीं और ये सब हुआ सिर्फ 2 साल के भीतर। उस समय भी स्टेडियम की छत के टपकने का एक मामला सामने आया। ये घटना खेल के उद्धाटन समारोह संपन्न होने के बाद की है। जैसे ही राजीव गांधी को स्टेडियम की छत टपकने की ख़बर मिली वो अपने दो साथियों अरुण नेहरू और अरुण सिंह के साथ स्टेडियम के लिए निकल पड़े। मूसलाधार बारिश जारी थी। अगले ही दिन जहां भारोत्तोलन प्रतियोगिता होनी थी वहां पानी भर गया। इस हालात से निपटना बड़ी चुनौती थी। देश की नाक का सवाल था। करीब एक हज़ार मजदूरों को आनन-फानन में बुलवाया गया। रात भर स्टेडियम को दुरुस्त करने का काम चलता रहा। राजीव गांधी अपने दोनों साथियों के साथ रात भर वहां मौजूद रहे। उस दिन उनकी मां और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्मदिन था। राजीव गांधी उस रात घर नहीं गए। ये एक जुनून था...एक जिम्मेदारी थी...एक चुनौती थी जिसे उन्होंने पूरा किया।
28 साल देश में इतना बड़ा खेल आयोजन हो रहा है। देश का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। नाक से लेकर पैसा तक। खेलों पर 28000 करोड़ रुपये (दिल्ली में बुनियादी सुविधाओं के विकास पर खर्च छोड़कर) खर्च हो रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक ऐसे खेल आयोजन से सिर्फ कुछ लोगों का फायदा होता है और बाकी लोग इसके कर्ज को दशकों तक झेलने के लिए मजबूर होते है। कॉमनवेल्थ गेम्स की कीमत दिल्ली के लोगों को अगले 20-25 वर्षों तक चुकानी होगी।

Sunday, September 5, 2010

बिहार का किंग कौन ?

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए रण सज चुका है और अब रणभेरी का सबको इंतजार है। अक्टूबर-नवंबर में होनेवाले चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने तैयारियां पहले से ही शुरू कर दी हैं। चुनाव का माहौल काफी पहले से बनाया जा रहा है। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में नई जान डालने के लिए राहुल गांधी ने पूरा जोर लगा दिया है। कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन दिलचस्प मुकाबला तो नीतीश और लालू के बीच है। एक के सामने अपना ताज बचाए रखने की चुनौती तो दूसरे के सामने अपना खोया ताज पाने की चुनौती। बिहार का सियासी गणित उतना आसान नहीं है जितना दूर से देखने पर लगता है। वहां की जनता ने अक्सर राजनीतिक पंडितों और पूर्वनुमान करने वालों को ठेंगा दिखाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ताल ठोंक कर अब तक बीजेपी से अलग हो गए होते, लेकिन सूबे की सियासत और मिजाज से वो अच्छी तरह से परिचित हैं। उन्हें पता है कि रण और रणनीति में मामूली गलती भी उन्हें बिहार की सत्ता से बेदखल कर देगी।

जेडीयू-बीजेपी की दोस्ती में कई बार ऐसा लगा कि चुनाव से पहले दरार आ जाएगी, लेकिन अब तक दोस्ताना कायम है। आरजेडी और एलजेपी ने भी हालात को देखते हुए हाथ मिला लिया। अब फैसला बिहार के लोगों को करना है कि उन्हें क्या चाहिए ? नीतीश के विकास की बयार बिहार के आम आदमी तक कितनी पहुंची है ? ये सिर्फ आंकड़ों और शहरों तक सीमित है या फिर आम-आदमी तक भी पहुंची है ? इसकी जांच का सही समय आ गया है। बिहार सरकार की मानें तो सूबे की कानून-व्यवस्था में गजब सुधार हुआ है। पटना की सड़कों पर देर रात तक अब आराम से महिलाएं बगैर किसी डर के निकलती हैं। बिजली की हालत भी सुधरी है। सड़कें बनी हैं यानि अब विकास की पटरी पर बिहार दौड़ने लगा है। 2005 में बिहार में 23 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित थे। आज यह आंकड़ा महज 8 लाख है। छात्रों के प्राथमिक विद्यालय बीच में ही छोड़ देने की दर 36 फीसदी थी, पर आज यह 12 फीसदी है। 2005 में बिहार में स्कूलों की इमारतों की संख्या 49,000 थी, पर आज 61,000 हो गई है। साल 2005 में सिर्फ 8200 स्कूलों के पास लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, लेकिन आज ऐसे स्कूलों की संख्या 23,200 हो गई है। साक्षरता के मामले में देशव्यापी आंकड़ा 64 फीसदी का है, लेकिन बिहार में यह सिर्फ 47 फीसदी पर है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 53.57 फीसदी है जबकि बिहार में महज 33 फीसदी। अच्छा है बिहार में कुछ तो बदल रहा है। ये आंकड़े नीतीश कुमार को विकास पुरुष तो साबित कर देते हैं लेकिन चुनाव फिर से जीता देंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। अगर गारंटी होती तो नीतीश बीजेपी के साथ अपने रिश्तों को बॉय-बॉय कर चुके होते, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फोटो छपने पर उन्होंने जिस तरह से विरोध दर्ज करवाया उसका सियासी मतलब तो यही निकलता है। कहीं न कहीं उनके मन में डर है कि मोदी के कारण मुस्लिम वोट उनके पक्ष में नहीं आएगा यानि नीतीश को अपने विकास के एजेंडा पर उतना भरोसा नहीं है जितना मैदान के बाहर से कमेंट्री करनेवाले पत्रकारों और राजनीतिक विशलेषकों को है। बिहार में मतदान विकास के नाम पर होगा या समीकरणों के आधार पर ये तो मतदान के बाद पता चलेगा लेकिन यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि बिहार का पूरा जनमत नीतीश कुमार के साथ है।

नीतीश इंजीनियर रहे हैं और अब वो चुनाव के लिए विभिन्न जातियों की सोशल इंजीनियरिंग करने में लगे हुए हैं। सवर्ण यानी ऊंची जातियां हमेशा बीजेपी का वोट बैंक रही हैं लेकिन वो इस बार नीतीश से नाराज़ हैं यानी ये वोट बंट सकते हैं। नीतीश दलितों और महादलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने का दावा कर रहे हैं लेकिन इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि लालू और रामविलास पासवान का वोट बैंक रहा ये समुदाय इतनी जल्दी नीतीश के साथ चला जाएगा। वैसे भी नीतीश कुर्मी और कोइरी यानी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दलितों के शोषण में इस समुदाय का भी बड़ा हाथ रहा है। रही बात मुसलमानों की तो उन्हें नीतीश से फ़ायदा हुआ है। निचले और ग़रीब तबके के मुसलमान नीतीश के साथ हैं लेकिन पढ़े लिखे मध्यवर्गीय मुसलमान नीतीश से काफ़ी नाराज़ हैं। बिहार के किंग का फैसला करने में मुस्लिम वोट काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस वोट बैंक को न तो कोई हाथ से जाने देना चाहता है और न ही किसी ओर सेंध लगाने। चुनावों से पहले माहौल बनाने में भी इस वर्ग का बड़ा हाथ रहता है। शहरों में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहतर होने के कारण शहरी मतदाता भले ही नीतीश के साथ हो जाए लेकिन बिहार का किंग बनाने के लिए काफी नहीं है। लालू-पासवान पिछले पांच साल से बिहार में सत्ता से बाहर हैं उनके पास नीतीश पर हमला बोलने के लिए पूरा मौका है, जिसका वो पूरा फायदा उठाएंगे। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस अपने बूते सरकार तो नहीं ही बना सकती है लेकिन अगर मुस्लिम और दलित वो बैंकों में सेंध लगाए तो खेल बिगाड़ने की स्थिति में आ ही सकती है। इसका नमूना पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान साफ-साफ दिखा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के लोग इस बार सत्ता किसे सौंपते हैं? विकास का या फिर जातिगत जोड़तोड़ को...

Thursday, June 3, 2010

अब सेना से भी टूट जाएगा भरोसा ?

शौर्य और अनुशासन का दूसरा नाम है भारतीय सेना। सेना को हमारे देश में बहुत ही सम्मान की नज़र से देखा जाता है। हाल की कुछ घटनाओं ने आम आदमी के इस भरोसे को झकझोर दिया है। जिस सेना को हिंदुस्तान का आम आदमी सम्मान की नज़रों से देखता था उसे आज शक की नज़रों से देख रहा है। क्या वक्त के साथ सेना का चाल, चेहारा और चरित्र बदल गया है या वर्दी पर लगे इक्के-दुक्के दाग ही सेना की छवि को दागदार कर रहे हैं। हाल ही में सेना में इंजीनियर इन चीफ पद पर तैनात लेफ्टिनेंट जनरल ए के नंदा पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा है। सेना के ही टेक्नीकल सेक्रेटरी की पत्नी ने नंदा पर यह आरोप लगाया है। टेक्नीकल सेक्रेटरी की पत्नी के अनुसार पिछले महीने इजरायल यात्रा के दौरान उसके साथ यौन उत्पीड़न का प्रयास किया गया था। जनरल के बचाव में खुद उनकी पत्नी आ गई हैं और उनका कहना है कि वो अपने पति को अच्छी तरह से जानती हैं। इजरायल यात्रा के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। नंदा की पत्नी तो अपने पति के बचाव में आ गईं लेकिन ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि कोई दूसरी औरत किसी पर इतना बड़ा इल्जाम बिना वजह क्यों लगाएगी ? सच्चाई जांच के बाद ही पता चलेगी...लेकिन अगर यौन उत्पीड़न के आरोप सच होते हैं तो भी और गलत होते हैं तो भी...दोनों ही हालात में सेना की साख पर बट्टा लगेगा। लेकिन सेना के इतिहास में ये कोई पहला मौका नहीं है जब इस तरह के आरोप सामने आए हैं। इससे पहले मेजर जनरल ए के लाल पर एक महिला अफसर के साथ यौन-उत्पीड़न का आरोप लगा। ए के लाल के बचाव में तब उनकी पत्नी और बेटियां आईं और उन्होंने ने आरोप लगानेवाली महिला अफसर के चरित्र पर ही सवाल उठाए। बाद में जांच हुई...मेजर जनरल दोषी पाए गए। कोर्ट मार्शल हुआ और सेना से बर्खास्त कर दिए गए। नौसेना के कमोडोर सुखजिंदर सिंह भी कुछ इसी तरह के आरोप में फंस हैं। उन पर आरोप है कि 2006 से 2008 के दौरान एक रूसी महिला से उनके संबंध थे। वह गोर्शकोब पनडुब्बी की मरम्मती परियोजना के प्रमुख थे। हाल ही में सुकना जमीन घोटाला सामने आया। इसमें तत्कालीन सैन्य सचिव लेफ्टि‍नेंट जनरल अवधेश प्रकाश और सुकना के पूर्व कोर कमांड लेफ्टनेंट जनरल पी के रथ के खिलाफ कोर्ट मार्शल चल रहा है। इसी मामले में सेना के दो बड़े अफसरों को प्रशासनिक कार्रवाई का भी सामना करना पड़ा है। इन सभी को सुकना में सैन्य छावनी के पास की जमीन बेचे जाने के लिए एनओसी देने में धांधली करने का दोषी पाया गया है। बात यहीं खत्म नहीं होती 2003 में कर्नल एच एस कोहली को सेना से निकाल दिया गया। उन पर आरोप था कि मेडल लेने के लिए उन्होंने झूठे बहादुरी के सबूत दिए। जांच में पाया गया कि कोहली ने दक्षिण असम के कछार जिले में मरे हुए नागरिकों पर टोमैटो केचअप डाल कर उन्हें मुठभेड़ में मरे आतंकवादी के रूप में पेश किया था। इस गुनाह में मेजर रविंदर सिंह और ब्रिगेडियर सुरेश राव भी शामिल थे। ताबूत घोटाले की आंच ने भी सेना की छवि पर बट्टा लगाया है। का‍रगिल युद्ध के बाद 2002 में सामने आए ताबूत घोटाले के सिलसिले में सेना के एक तत्कालीन कर्नल एफबी सिंह के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया गया था। रिटायर्ड कर्नल एस.के. मलिक और रिटायर्ड मेजर जनरल अरुण रोवे का नाम भी आरोपपत्र में शामिल था। कहीं ऐसा तो नहीं कि सेना के कड़े अनुशासन की आड़ में अनगिनत मामले दबे पड़े हों और इंसाफ के लिए छटपटा रहे हों... सेना से लोगों का भरोसा नहीं टूटना चाहिए...लेकिन कड़े अनुशासन की आड़ में किसी के साथ नाइंसाफी भी नहीं होनी चाहिए। सच चाहे कितना भी कड़वा हो...दुनिया के सामने आना चाहिए।

Thursday, May 6, 2010

आतंक को फांसी दो...

न्यूयॉक के टाइम्स स्क्वायर को दहलाने की साजिश के तार भी पाकिस्तान से जुड़े। इस मामले जिस फैजल शहजाद को गिरफ्तार किया गया है वह मूल रुप से पाकिस्तान का रहनेवाला है। फैजल के पिता सेवानिवृत्त वाइस एयर मार्शल हैं जिन्हें पाकिस्तान में विशेष दर्जा मिला हुआ है। फिलहाल फैजल के आतंकी कनेक्शन की कुंडली निकालने में अमेरिकी अधिकारियों की टीम लगी हुई है। अमेरिका से पाकिस्तान तक उसके कनेक्शन का पोस्टमार्टम चल रहा है। फैजल अमेरिका में पढ़ा लिखा है। वहां की नागरिकता भी ले चुका है। वहां की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े ओहदे पर काम भी कर चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि एक होनहार नौजवान आखिर आतंकी क्यों बना? उसने आतंक का रास्ता क्यों चुना ? ऐसे कई सवाल हैं जिनका सही-सही उत्तर पूरी दुनिया को जानना है। क्योंकि ये मामला सिर्फ फैजल शहजाद का नहीं पूरी दुनिया में तैयार हो रहे हज़ारों फैजल शहजाद का है। विदेशी मामलों के स्तंभकार अरनोड डी बॉर्शग्रेव ने अपने कॉलम में लिखा है, पाकिस्तान अब भी हर साल अपने 11 हजार मदरसों के पांच लाख स्त्रातकों में से करीब दस हजार जिहादियों को पैदा कर रहा है जिनमें से अधिकतर की उम्र 16 साल है। उन्होंने लिखा है, ये जिहादी मानते हैं कि इस्लाम के दुश्मन यानि अमेरिका, भारत और इजरायल इस्लाम के पहरूओं को पीछे हटाना चाहते हैं और मुस्लिम देशों को परमाणु हथियार से वंचित रखना चाहते हैं। बोर्शग्रेव का कहना है कि पाकिस्तानी अमेरिका को अपना सबसे बडा दुश्मन नहीं मानते, बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी द्वारा पैदा किया गया आतंकी संगठन तालिबान आम जनता का सबसे बडा दुश्मन है। 26/11 हमले के बाद जब पुलिस ने आमिर अजमल कसाब को जिंदा पकड़ा तो तर्क ये दिया गया कि गरीबी ने उसे आतंकी बना दिया। उसकी कम शिक्षा ने उसे आतंक की राह पकड़ा दी। फैजल के बारे में भी कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गई और वो बेरोजगार हो गया। उस पर कर्ज काफी था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था और मजबूरी में उसने आतंक का दामन थाम लिया। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि ज्यादातर पाकिस्तानी मूल के नागरिक ही आतंक की राह क्यों पकड़ते हैं? वहां की आबोहवा में ऐसी क्या ख़ास बात है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में हुए आतंकी हमलों के तार वहीं से जुड़ जाते हैं। पाकिस्तानी आतंक फैक्ट्री से निकले जिहादी ही दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में क्यों पकड़े जाते हैं? क्या वहां की सामाजिक व्यवस्था आतंकियों को सम्मान देती है जिसकी इच्छा हर आम और ख़ास को होती है? क्या वहां की व्यवस्था में आतंक और जेहाद को वो सम्मान हासिल है जो और कहीं नहीं मिलता? या फिर पाकिस्तान में शोहरत, सम्मान और दौलत पाने का ये सबसे आसान तरीका आतंक ही है ? अब बड़ा सवाल ये है कि आतंकी चाहते क्या हैं? मुझे लगता है कि वो सुर्खियां चाहते हैं और इन्हीं सुर्खियों के ऑक्सीजन के दम पर वो जिंदा है। अमेरिका में हुए 9/11 ने ओसामा-बिन-लादेन को आंतक की दुनिया में हीरो बना दिया। अंतराष्ट्रीय मंच पर होनेवाली ज्यादातर बैठकों का एजेंडा ओसामा, अलकायदा और आतंक हो गया। हमला अमेरिका पर हुआ था यानि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश पर तो अंजाम तो कुछ-न-कुछ होना था। तालिबान की ईंट से ईंट बजा दी गई लेकिन न तो ओसामा हाथ आया और न ही अलकायदा का खात्मा हुआ। करीब 10 साल होनेवाले हैं अब भी अफगानिस्तान में जंग खत्म नहीं हुई। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के मुंह से हमेशा ओसामा को खत्म करेंगे निकलता रहता है। जब आतंकी घटना की बसरी मनाई जा रही होती हैं तो मौन हो कर अपनों को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं तो उन तस्वीरों को देखकर आतंकियों का हौसला बढ़ता है। जब हम रो रहे होते हैं तो वो हंसते हैं। क्योंकि हम पर चोट...उनकी जीत होती है। जितनी बार दुनिया ओसामा का नाम लेती है वो उतना ही मजबूत होता जाता है। यही बात दूसरे आतंकियों और आतंकी संगठनों पर भी लागू होती है। मुंबई पर हुए 26/11 हमले ने जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को पाकिस्तान के भीतर चल रहे आतंकी कैंपों में हीरो बना दिया और उसके मारे गए साथियों को शहीद। वहां इनकी मिसाल दी जाती होगी। और इन सब की वजह है सुर्खियां। आतंक को भाव देकर... उसके प्रति ज्यादा सर्तकता का इजहार कर हम अपनी ही कमजोरी को दिखाते हैं। वक्त पुरानी आतंकी घटनाओं को याद करने...उन पर आंसू बहाने का नहीं। आतंक को वगैर सुर्खियां दिए कुचलने का है। किसी आतंकी को शहीद और हीरो बनाने का नहीं...आतंक का ऑक्सीजन काटकर हमेशा के लिए आतंक के खात्मे का है। इसलिए आतंक के खिलाफ दुनिया की इस जंग हर आदमी सिपाही है और उसके मजूबत इरादे उसका हथियार।