बिहार विधानसभा चुनाव के लिए रण सज चुका है और अब रणभेरी का सबको इंतजार है। अक्टूबर-नवंबर में होनेवाले चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने तैयारियां पहले से ही शुरू कर दी हैं। चुनाव का माहौल काफी पहले से बनाया जा रहा है। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में नई जान डालने के लिए राहुल गांधी ने पूरा जोर लगा दिया है। कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन दिलचस्प मुकाबला तो नीतीश और लालू के बीच है। एक के सामने अपना ताज बचाए रखने की चुनौती तो दूसरे के सामने अपना खोया ताज पाने की चुनौती। बिहार का सियासी गणित उतना आसान नहीं है जितना दूर से देखने पर लगता है। वहां की जनता ने अक्सर राजनीतिक पंडितों और पूर्वनुमान करने वालों को ठेंगा दिखाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ताल ठोंक कर अब तक बीजेपी से अलग हो गए होते, लेकिन सूबे की सियासत और मिजाज से वो अच्छी तरह से परिचित हैं। उन्हें पता है कि रण और रणनीति में मामूली गलती भी उन्हें बिहार की सत्ता से बेदखल कर देगी।
जेडीयू-बीजेपी की दोस्ती में कई बार ऐसा लगा कि चुनाव से पहले दरार आ जाएगी, लेकिन अब तक दोस्ताना कायम है। आरजेडी और एलजेपी ने भी हालात को देखते हुए हाथ मिला लिया। अब फैसला बिहार के लोगों को करना है कि उन्हें क्या चाहिए ? नीतीश के विकास की बयार बिहार के आम आदमी तक कितनी पहुंची है ? ये सिर्फ आंकड़ों और शहरों तक सीमित है या फिर आम-आदमी तक भी पहुंची है ? इसकी जांच का सही समय आ गया है। बिहार सरकार की मानें तो सूबे की कानून-व्यवस्था में गजब सुधार हुआ है। पटना की सड़कों पर देर रात तक अब आराम से महिलाएं बगैर किसी डर के निकलती हैं। बिजली की हालत भी सुधरी है। सड़कें बनी हैं यानि अब विकास की पटरी पर बिहार दौड़ने लगा है। 2005 में बिहार में 23 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित थे। आज यह आंकड़ा महज 8 लाख है। छात्रों के प्राथमिक विद्यालय बीच में ही छोड़ देने की दर 36 फीसदी थी, पर आज यह 12 फीसदी है। 2005 में बिहार में स्कूलों की इमारतों की संख्या 49,000 थी, पर आज 61,000 हो गई है। साल 2005 में सिर्फ 8200 स्कूलों के पास लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, लेकिन आज ऐसे स्कूलों की संख्या 23,200 हो गई है। साक्षरता के मामले में देशव्यापी आंकड़ा 64 फीसदी का है, लेकिन बिहार में यह सिर्फ 47 फीसदी पर है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 53.57 फीसदी है जबकि बिहार में महज 33 फीसदी। अच्छा है बिहार में कुछ तो बदल रहा है। ये आंकड़े नीतीश कुमार को विकास पुरुष तो साबित कर देते हैं लेकिन चुनाव फिर से जीता देंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। अगर गारंटी होती तो नीतीश बीजेपी के साथ अपने रिश्तों को बॉय-बॉय कर चुके होते, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फोटो छपने पर उन्होंने जिस तरह से विरोध दर्ज करवाया उसका सियासी मतलब तो यही निकलता है। कहीं न कहीं उनके मन में डर है कि मोदी के कारण मुस्लिम वोट उनके पक्ष में नहीं आएगा यानि नीतीश को अपने विकास के एजेंडा पर उतना भरोसा नहीं है जितना मैदान के बाहर से कमेंट्री करनेवाले पत्रकारों और राजनीतिक विशलेषकों को है। बिहार में मतदान विकास के नाम पर होगा या समीकरणों के आधार पर ये तो मतदान के बाद पता चलेगा लेकिन यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि बिहार का पूरा जनमत नीतीश कुमार के साथ है।
नीतीश इंजीनियर रहे हैं और अब वो चुनाव के लिए विभिन्न जातियों की सोशल इंजीनियरिंग करने में लगे हुए हैं। सवर्ण यानी ऊंची जातियां हमेशा बीजेपी का वोट बैंक रही हैं लेकिन वो इस बार नीतीश से नाराज़ हैं यानी ये वोट बंट सकते हैं। नीतीश दलितों और महादलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने का दावा कर रहे हैं लेकिन इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि लालू और रामविलास पासवान का वोट बैंक रहा ये समुदाय इतनी जल्दी नीतीश के साथ चला जाएगा। वैसे भी नीतीश कुर्मी और कोइरी यानी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दलितों के शोषण में इस समुदाय का भी बड़ा हाथ रहा है। रही बात मुसलमानों की तो उन्हें नीतीश से फ़ायदा हुआ है। निचले और ग़रीब तबके के मुसलमान नीतीश के साथ हैं लेकिन पढ़े लिखे मध्यवर्गीय मुसलमान नीतीश से काफ़ी नाराज़ हैं। बिहार के किंग का फैसला करने में मुस्लिम वोट काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस वोट बैंक को न तो कोई हाथ से जाने देना चाहता है और न ही किसी ओर सेंध लगाने। चुनावों से पहले माहौल बनाने में भी इस वर्ग का बड़ा हाथ रहता है। शहरों में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहतर होने के कारण शहरी मतदाता भले ही नीतीश के साथ हो जाए लेकिन बिहार का किंग बनाने के लिए काफी नहीं है। लालू-पासवान पिछले पांच साल से बिहार में सत्ता से बाहर हैं उनके पास नीतीश पर हमला बोलने के लिए पूरा मौका है, जिसका वो पूरा फायदा उठाएंगे। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस अपने बूते सरकार तो नहीं ही बना सकती है लेकिन अगर मुस्लिम और दलित वो बैंकों में सेंध लगाए तो खेल बिगाड़ने की स्थिति में आ ही सकती है। इसका नमूना पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान साफ-साफ दिखा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के लोग इस बार सत्ता किसे सौंपते हैं? विकास का या फिर जातिगत जोड़तोड़ को...
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1 comment:
बिहार में चुनाव का विकास से क्या लेना-देना। वहां की राजनीति को समझना बहुत मुश्किल है...जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं।
सुरेंद्र यादव, पटना
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