Tuesday, February 18, 2014

वोट के लिए नफरत की राजनीति!



मार्च के पहले सप्ताह में चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान करने की तैयारी कर रहा है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव का अपना मिजाज है। यहां की राजनीति के कई रंग ऐसे हैं, जो हमारा सर दुनिया के सामने ऊंचा कर देते हैं, तो कुछ ऐसे भी जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर डेंट की तरह हैं। राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा काम है, चुनाव लड़ना और सरकार बनाना। इसके लिए राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने हिसाब से वोट बैंक साधने के लिए गोटियां चलती हैं।


दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रणनीति है- झाड़ू चलाओ और झाड़ू चमकाओ। दिल्ली के लोगों के हवाई सपने दिखा कर आम आदमी पार्टी सत्ता में तो आ गईं, लेकिन नतीजा क्या निकला? 48 दिन बाद भी केजरीवाल ने जनलोकपाल का बहाना बना कर अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया यानि उस जिम्मेदारी से भाग खड़े हुए, जिसके लिए जनता ने उन्हें चुना था। खैर, सूबा तो संभला नहीं और केंद्र संभालने की रणनीति बनाने में आम आदमी पार्टी के सूरमा लगे हैं।


यूपी की राजनीतिक लड़ाई सबसे दिलचस्प है। वैसे कहा भी जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर ही आता है। यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं और यहां के चुनावी अखाड़े में हर वो महारथी है जो दिल्ली की कुर्सी का दावेदार है। कई सीटों पर सीधा मुकाबला कांग्रेस, बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उम्मीदवारों के बीच होगा। कुछ अहम सीटों पर आम आदमी पार्टी भी अपने उम्मीदवार उतार कर चुनावी मैदान में गर्मी लाने की पूरी कोशिश करेगी।


यूपी का राजनीतिक इतिहास गवाह रहा है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए राजनीतिक पार्टियों ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश की है। पिछले साल अगस्त के आखिरी हफ्ते में जिस तरह से मुजफ्फरनगर नफरत की आग में जला, हज़ारों लोग बेघर होकर राहत कैंपों में पहुंच गए, इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कड़कड़ाती ठंड में दम तोड़ने वाले मासूमों का असली गुनहगार कौन है? सिस्टम या सियासत। सवाल ये भी उठता है कि आखिर दंगों को रोकने के लिए समय पर ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? जब हिंसा की आग ठंडी हो गईं, तो हर पार्टी का बड़ा नेता राहत कैंपों में पहुंचकर पीड़ितों का दर्द समझने और महसूस करने के लिए पहुंचने लगा। उनका घर उजड़ा था, अपने बिछड़ गए थे और नेताओं को चिंता अपने वोट बैंक की थी। इसमें कोई शक नहीं कि समझने, समझाने के पीछे का असली खेल एक बड़े वोट बैंक को साधना भी रहा होगा, क्योंकि यूपी की राजनीति में ये तपका किसी का भी खेल बना या बिगाड़ सकता है। शायद, इसलिए कोई दर्द के रिश्ते से अपना नाता जोड़ रहा था, तो कोई अपनी कट्टर छवि की नुमाइश करके वोटों के नए धुव्रीकरण का रास्ता तलाश रहा था।


अगर यूपी में सक्रिय ज्यादातर राजनीतिक दलों और बड़ी राजनीतिक हस्तियों के इतिहास को देखा जाए तो एक दूसरी तस्वीर ही सामने आती है। मुलायम सिंह यादव अगर इतने ताकतवर नेता बने तो इसका श्रेय नब्बे के दशक में राम मंदिर आंदोलन के चलते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी जाता है। उससे पहले मुलायम की सियासी ताकत बहुत सीमित थी, लेकिन राम मंदिर आंदोलन के दौरान बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उनके बयानों ने उन्हें मौलाना मुलायम की उपाधि दिलवा दी, बल्कि थोक मुस्लिम वोटों का भी हकदार बना लिया। इसके बाद तो फिर यादव और मुस्लिम वोट बैंक की बदौलत साइकिल ने जो रफ्तार पकड़ी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बीजेपी 1989 विधानसभा चुनाव में सिर्फ 57 सीटें जीत पाई थी और उसका वोट प्रतिशत रहा सिर्फ 11 फीसदी। लेकिन, दो साल बाद 1991 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिले 31 फीसदी वोट और 221 सीटें। इसके पीछे वजह सिर्फ एक ही रही- सांप्रदायिक धुव्रीकरण। राम मंदिर आंदोलन ने इस दौर में यूपी को पूरी तरह से धार्मिक आधार पर बांट दिया था। इस खेल में मारा तो आम आदमी जा रहा था और वोट की फसल काटने के लिए नेता अपने-अपने तरीके से रणनीति बनाने में जुटे थे। गुजरात को अगर देखा जाए तो, गोधरा कांड के बाद वहां जिस तरह से वोटों का धुव्रीकरण हुआ, उसने बीजेपी को अजेय बना दिया। 2002 से लेकर 2012 के बीच हुए तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी का वोट प्रतिशत 49 फीसदी तक पहुंच गया। हर सियासी पार्टी ने चुनावों में अपने-अपने हिसाब से गोटियां फैला रखी है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लोगों के पास अभी वक्त है, सभी राजनीतिक पार्टियों के असली चरित्र को समझने का? उनके काम-काज का हिसाब करने का?


1 comment:

अजय said...

चुनावी मौसम में तो ये सब होता ही रहता है...जनाब