मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर लोग कैसे आतंक और जेहाद का रास्ता पकड़ लेते हैं ? उन्हें पता नहीं होता की इसका अंजाम क्या होगा ? ऐसा लगता था कि गरीबी की वजह से लोग आतंक का दामन थामते हैं। हाल ही में एक ख़बर सुर्खियों में आयी की पाकिस्तान के बहावलपुर में एक लाख रुपये के लिए नौजवान आत्मघाती दस्ता बनने को तैयार हैं...और वहां उनकी भर्ती चल रही है। इस बात में कितना दम है ये तो कहना मुश्किल है लेकिन ये पूरी सच्चाई नहीं है। मुंबई पर हुए आतंकी हमले में पकड़े गए जिंदा आतंकी कसाब के बारे में तो ये तर्क फिट बैठता है...लेकिन अमेरिका में गिरफ्तार हेडली और राणा के बारे में नहीं। माना की कसाब गरीब था और गरीबी की वजह से आतंकी संगठनों से जा मिला लेकिन हेडली और राणा गरीब नहीं थे। वे अच्छे परिवारों से आते हैं...और पढ़े-लिखे भी हैं, फिर इन दोनों ने आतंक का रास्ता क्यों अपनाया ? हाल ही में पाकिस्तान में पांच अमेरिकी नागरिकों को पकड़ा गया हैं। ये सभी अल-कायदा से जुड़े आतंकी संगठनों में शामिल होने के लिए तालिबान के गढ़ पश्चिमोत्तर इलाके में जाने की फिराक में थे। पाकिस्तानी अखबारों में आ रही मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक ये पांचों लोग पाकिस्तान के संवेदनशील संस्थानों पर हमले की योजना बना रहे थे। इन सभी के पास से लैपटॉप, नक्शे और ऐसे वीडियो मिले हैं, जो यह बताते हैं कि वे अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व वाली सेना से लड़ने के लिए आतंकी समूहों में शामिल होना चाहते थे। इन्हें क्या कहेंगे ! गरीबी की मार से त्रस्त नौजवानों ने आतंक का रास्ता चुना या फिर कुछ और ? सबसे बड़ी बात इतने पढ़े लिखे नौजवान आखिर इस रास्ते को क्यों चुनते हैं ? कहीं इसकी वजह सुर्खियां तो नहीं...। सुर्खियां ही तो वह चीज है, जिसके लिए आतंकी मरते रहते हैं। सुर्खियों में नाम और टेलीविजन पर बिना रुके लगातार ख़बरें। इसीलिए तो 9/11 उनकी इतनी बड़ी सफलता थी। इसीलिए बाली में 12/10, लंदन में 7/7, मुंबई में 26/11 के धमाके इतना असर छोड़ गए। तो आप कहेंगे पाकिस्तानी शहरों में हर दिन हो रहे धमाकों का क्या मतलब है?
ये आईएसआई के लिए सीधा संदेश हैं कि जब तक पाकिस्तान अरबों डॉलर की एवज में अमेरिकी सेना के लिए किराए के टट्टू की तरह काम करता रहेगा, तब तक उसे चैन से जीने नहीं देगे। सुर्खियों ने 26/11 आतंकी हमले में पकड़े गए जिंदा आतंकी कसाब को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में चलनेवाले आतंकी कैंपो में हीरो बना दिया और उसके मारे उसके साथियों को शहीद। जिस अमेरिका ने रुस को हराने के लिए तालिबान का सहारा लिया...उसी के लड़ाकों ने अमेरिका को 9/11 दिया। जिसके जख्म अभी भी नहीं धुले हैं। पाकिस्तान से भेजे गए जो आतंकी कल तक कश्मीर में उत्पात मचा रहे थे...वे अब अपने ही घर में रोज खून की होली और बमों से दीवाली मना रहे हैं...और अब पढ़े-लिखे अमेरिकियों के जेहाद में शामिल होने की ख़बरों ने ओबामा प्रशासन के होश उड़ा दिए हैं। लेकिन, लाख टके का सवाल ये है कि इतने पढ़े लिखे और अच्छे घरों के लड़के इस राह पर क्यों चल रहे हैं ?
Saturday, December 12, 2009
Saturday, August 22, 2009
किसान
वो रात-दिन मेहनत करता है
खून-पसीने से धरती सींचता है
धरती पर चलाता हल है
फिर भी भूखा सोता है !
उसे भूत याद नहीं !
भविष्य की चिंता नहीं
वर्तमान में जीता है
धरती से अन्न उगाता है
फिर भी भूखा सोता है !
कर्म पथ पर चल पड़ा है
धर्म पथ पर चल पड़ा है
मेहनत को समझा भगवान
फिर भी भूखा सोता है !
दुनिया की चिंता नहीं
चकाचौंध की चाह नहीं
हाड़तोड़ मेहनत को समझा इमान
फिर भी भूखा सोता है !
वो दर्द में जीता है
वो दर्द में मरता है
फिर भी कोई आह नहीं
फिर भी भूखा सोता है !
सबका प्यारा है किसान
पीएचडी की थीसिस है किसान
राजनीतिक दलों का वोट बैंक है किसान
फिर भी भूखा सोता है !
इस जीवन की आपाधापी में
नए दौर की भागाभागी में
सबकी भूख मिटाता है
फिर भी भूखा सोता है !
खून-पसीने से धरती सींचता है
धरती पर चलाता हल है
फिर भी भूखा सोता है !
उसे भूत याद नहीं !
भविष्य की चिंता नहीं
वर्तमान में जीता है
धरती से अन्न उगाता है
फिर भी भूखा सोता है !
कर्म पथ पर चल पड़ा है
धर्म पथ पर चल पड़ा है
मेहनत को समझा भगवान
फिर भी भूखा सोता है !
दुनिया की चिंता नहीं
चकाचौंध की चाह नहीं
हाड़तोड़ मेहनत को समझा इमान
फिर भी भूखा सोता है !
वो दर्द में जीता है
वो दर्द में मरता है
फिर भी कोई आह नहीं
फिर भी भूखा सोता है !
सबका प्यारा है किसान
पीएचडी की थीसिस है किसान
राजनीतिक दलों का वोट बैंक है किसान
फिर भी भूखा सोता है !
इस जीवन की आपाधापी में
नए दौर की भागाभागी में
सबकी भूख मिटाता है
फिर भी भूखा सोता है !
Tuesday, April 21, 2009
कहां गई विचारधारा ?
एक समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी हुआ करता था, उस वक्त विपक्षियों ने नारा दिया- 'दो बैलों की जोड़ी है, एक अंधा, एक कोढ़ी है'। तब विपक्ष के इस नारे की बड़ी चर्चा हुई...आलोचना हुई। इस लोकसभा चुनाव में अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने जैसे-जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया उसके बारे में क्या कहा जाए...ये वोटर ही बेहतर बता सकता है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए अपशब्द का इस्तेमाल किया। जवाब में कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा कि अगर हम गांधीवादी नहीं होते तो उनकी जुबान खींच लेते। कुछ नेताओं ने तो ऐसे-ऐसे बयान दिए जिसे दुबारा जुबान पर लाते हुए लज्जा आती है। लेकिन इन नेताओं ने वगैर किसी हिचक के ये बाते जनता के बीच कही... मीडिया की मौजूदगी में कहीं। कोई किसी को पप्पी-झप्पी देने की बात कर रहा है...कोई किसी को हिजड़ा बता रहा है...कोई अफजल गुरु को किसी का दामाद बता कर सवाल पूछ रहा है। नेताओं की ये जुबानी जंग न्यूज़ चैनलों के माध्यम से पूरे देश के घर-घर पहुंची। अब जनता को तय करना है कि वो इसे कितना गंभीरता से लेती है। सब कुछ वक्त के साथ बदल गया है। सारी शालिनता और मर्यादा अरब सागर में डूब चुकी है। कांग्रेस को जब चुनाव चिन्ह के रुप में हाथ मिला तो विपक्षियों ने पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ 'खूनी पंजा' कह कर प्रचार किया। तब कांग्रेस ने जवाबी नारा दिया 'जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर' वाकई मुहर हाथ पर लगी। 1977 में कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का जिस नारे ने काम किया वो था 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है...भावी इतिहास तुम्हारा है'। वाकई कांग्रेस केंद्र से उखड़ी और जनता पार्टी की सरकार बनी। जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था। जनता पार्टी सरकार की नाकामी गिनाने के लिए कांग्रेस लोगों के बीच जिस नारे के साथ गई वो था-'क्या हुआ जी, क्या हुआ, चूहा बत्ती ले गया, इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं' इसी नारे के सहारे कांग्रेस की दुबारा दिल्ली के तख्त पर वापसी हुई। इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने जब मारुती का कारखाना लगाने की ठानी तो विरोधियों ने एक सुर में कहा- 'बेटा कार बनाता है...मां बेकार बनाती है'। कांग्रेसी राज में महंगाई के मुद्दे पर सोशलिस्टों ने नारा दिया- 'खा गई राशन पी गई तेल, यह देखो इंदिरा का खेल'। इस नारे का असर ऐसा हुआ कि कांग्रेस को जवाबी नारा देना पड़ा 'गरीबी हटाओ'। 1980 के दशक में चुनाव के दौरान कांग्रेस ने नारा दिया 'इंदिरा लाओ, देश बचाओ'। इंदिरा गांधी के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कांग्रेस ने कहा- 'इक्कीसवीं सदी में जाना है, कांग्रेस को जिताना है'। 90के दशक में जब मंडल की हवा चली तो उस वक्त जिस नारे ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया वो था- 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है'। मंडल के गुब्बारे की जिस नारे ने हवा निकाली वो था- 'राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे' और 'बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का'। अब वक्त बदलने लगा था संसदीय राजनीति का मिजाज बदलने लगा था। क्षेत्रीय पार्टियां अब राष्ट्रीय राजनीति में दिखने लगी थी और दिल्ली से इनकी दूरी कम होने लगी थी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने नारा दिया- 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू'...बिहार में आरजेडी , यूपी में बीएसपी और एसपी, पंजाब में अकाली, आंध्रप्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडू में एआईडीएमके और डीएमके, पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट, उड़ीसा में बीजेडी, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना यही पार्टियां अपने सीमित दायरे से निकल कर अब दिल्ली की सरकार बनाने में अहम रोल निभा रही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा जैसे-जैसे फैल रहा है वैसे-वैसे कांग्रेस और बीजेपी का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। यही फैलाव और सिकुड़न राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारा से धीरे-धीरे विचार को गायब कर रहा है। अब विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण सरकार बनाना और उसे बचाए रखने की चुनौती है। ऐसे में कब किसका हाथ
पकड़ना और छोड़ना पड़ जाए कोई नहीं जानता। इसलिए आज की राजनीति में कोई अपने आप को किसी विचारधारा के दायरे में बांधना नहीं चाहता। यही वजह है कि अब चुनाव में न तो मुद्दों का पता चल पा रहा हैं...न हीं नारों का। ऐसे में विचारधारा को राजनीतिक पार्टियां एक मुखौटे के रुप में इस्तेमाल कर रही हैं।
पकड़ना और छोड़ना पड़ जाए कोई नहीं जानता। इसलिए आज की राजनीति में कोई अपने आप को किसी विचारधारा के दायरे में बांधना नहीं चाहता। यही वजह है कि अब चुनाव में न तो मुद्दों का पता चल पा रहा हैं...न हीं नारों का। ऐसे में विचारधारा को राजनीतिक पार्टियां एक मुखौटे के रुप में इस्तेमाल कर रही हैं।
Monday, March 9, 2009
कुछ भी तो नहीं बदला...
पिछले कई वर्षों से मैं बिहार नहीं गया था, लेकिन इस बार मौका मिला। मेरा सफर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से शुरू हुआ... ट्रेन करीब 3 घंटे लेट थी। ट्रेनों का लेट होना हमारे यहां सामान्य बात है। आमने-सामने की सीट पर कॉलेजों में पढ़नेवाले छात्र बैठे थे। ये बिहार का निम्न मध्यमवर्ग था जिसके सपने आसमान में उड़ने के थे...बिहार के लिए कुछ करने का इरादा था। इनके पास लैपटॉप, मोबाइल फोन जैसी चीजें भी थीं। पूरी दुनिया से बेखबर इनमें से कोई गाना सुनने में मस्त था...कोई अपने लैपटॉप पर कुछ सर्च करने में लगा हुआ था...और कोई न्यूज पढ़ने में मग्न था। गाड़ी भी अपनी रफ्तार से चल रही थी। दिल्ली से अलीगढ़ के बीच तो सब अपने में मग्न थे, लेकिन कुछ ही मिनटों में तीन बार ट्रेन के रुकने ने एक-दूसरे को
करीब ला दिया। इनमें से एक बोला "लालू यादव ने संसद में कहा कि हमने भारतीय रेल को हाथी से चीता बना दिया...यार मुझे तो लगता है उन्होंने घोड़े को गदहा बना दिया...तीन घंटे ट्रेन का लेट होना कोई मायने रखता है...जगह-जगह रुक रही है। सपने जापान की तरह बुलेट ट्रेन चलाने के हैं, लेकिन जो चल रही है उसकी हालत सुधारने की कोई बात नहीं कर रहा है।
देखिएगा पटना पहुंचे-पहुंचे जरुर 6-7 घंटे लेट हो जाएगी।" दूसरे ने बीच में ही कहा कि नेताओं ने तो बिहार का सत्यानाश कर दिया है। जो बिहार कभी इतना धनी और संपन्न हुआ करता था...जहां पढ़ने देश के कोने-कोने से छात्र आते थे...वहां के लड़के अब सीधे ट्रेन पकड़ कर बिहार से बाहर निकल जाते हैं, उन्हें बिहार में अपना भविष्य दिखाई नहीं देता। यही वजह है कि हमलोग अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गए हैं और जो एक बार यहां से निकल जाता है वो शायद ही वापस लौटता है। उस लड़के की बात में दर्द भी था और दम भी। बिहार के जितने लोगों से मैं दिल्ली और दूसरी जगहों पर मिला हूं, कोई वापस जाने का नाम नहीं लेता। ज्यादातर अपना भविष्य दूसरी जगहों पर ही तलाशते हैं। अचानक मैंने पूछा, " बिहार के लिए क्या किया जा सकता है ? " सबकी अपनी-अपनी राय थी। कोई नहरों के जाल बनाने की बात कर रहा था...कोई कल-कारखाने लगाने की...कोई लॉ-ऑडर को ठीक करने की। पूरी रात और दिन बातों में ही कट गया। मेरा स्टेशन डुंमराव आनेवाला था...वाकई अब तक ट्रेन करीब साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी थी। वहां से मुझे करीब बीस किलोमीटर दूर गंगा के किनारे एक गांव में जाना था। रास्ता परिचित था...एक लंबे समय के बाद इस रास्ते से गुजर रहा था इसलिए एक-एक चीज को याद करने में लगा हुआ था। सब कुछ वही था...कुछ ज्यादा नहीं बदला। अब मिनी बस और जीप के साथ ऑटो भी इस रुट पर आ चुके थे। जिस रास्ते से मैं गुजर रहा था...रोड़ की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया था। बीस किलोमीटर का सफर 2 घंटे में पूरा करके मैं अपने गांव पहुंच चुका था। वहां गजब की शांति थी, रह-रह कर फूलों की खूशबू आ रही थी, सामने ही कई किलोमीटर तक चारों ओर गेहूं और चने की फसल भी लहलहा रही थी। बस जिस एक चीज की वहां कमी खल रही थी वो थी लोगों की...ज्यादातर लोग वहां से जा चुके थे।
करीब ला दिया। इनमें से एक बोला "लालू यादव ने संसद में कहा कि हमने भारतीय रेल को हाथी से चीता बना दिया...यार मुझे तो लगता है उन्होंने घोड़े को गदहा बना दिया...तीन घंटे ट्रेन का लेट होना कोई मायने रखता है...जगह-जगह रुक रही है। सपने जापान की तरह बुलेट ट्रेन चलाने के हैं, लेकिन जो चल रही है उसकी हालत सुधारने की कोई बात नहीं कर रहा है।
देखिएगा पटना पहुंचे-पहुंचे जरुर 6-7 घंटे लेट हो जाएगी।" दूसरे ने बीच में ही कहा कि नेताओं ने तो बिहार का सत्यानाश कर दिया है। जो बिहार कभी इतना धनी और संपन्न हुआ करता था...जहां पढ़ने देश के कोने-कोने से छात्र आते थे...वहां के लड़के अब सीधे ट्रेन पकड़ कर बिहार से बाहर निकल जाते हैं, उन्हें बिहार में अपना भविष्य दिखाई नहीं देता। यही वजह है कि हमलोग अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर गए हैं और जो एक बार यहां से निकल जाता है वो शायद ही वापस लौटता है। उस लड़के की बात में दर्द भी था और दम भी। बिहार के जितने लोगों से मैं दिल्ली और दूसरी जगहों पर मिला हूं, कोई वापस जाने का नाम नहीं लेता। ज्यादातर अपना भविष्य दूसरी जगहों पर ही तलाशते हैं। अचानक मैंने पूछा, " बिहार के लिए क्या किया जा सकता है ? " सबकी अपनी-अपनी राय थी। कोई नहरों के जाल बनाने की बात कर रहा था...कोई कल-कारखाने लगाने की...कोई लॉ-ऑडर को ठीक करने की। पूरी रात और दिन बातों में ही कट गया। मेरा स्टेशन डुंमराव आनेवाला था...वाकई अब तक ट्रेन करीब साढ़े छह घंटे लेट हो चुकी थी। वहां से मुझे करीब बीस किलोमीटर दूर गंगा के किनारे एक गांव में जाना था। रास्ता परिचित था...एक लंबे समय के बाद इस रास्ते से गुजर रहा था इसलिए एक-एक चीज को याद करने में लगा हुआ था। सब कुछ वही था...कुछ ज्यादा नहीं बदला। अब मिनी बस और जीप के साथ ऑटो भी इस रुट पर आ चुके थे। जिस रास्ते से मैं गुजर रहा था...रोड़ की हालत में ज्यादा बदलाव नहीं आया था। बीस किलोमीटर का सफर 2 घंटे में पूरा करके मैं अपने गांव पहुंच चुका था। वहां गजब की शांति थी, रह-रह कर फूलों की खूशबू आ रही थी, सामने ही कई किलोमीटर तक चारों ओर गेहूं और चने की फसल भी लहलहा रही थी। बस जिस एक चीज की वहां कमी खल रही थी वो थी लोगों की...ज्यादातर लोग वहां से जा चुके थे।
Friday, February 13, 2009
नेता नहीं, लीडर चाहिए !
कई साल पहले की बात है। मैं बिहार के डुमरांव रेलवे स्टेशन पर एक पेड़ के नीचे बैठा अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहा था। खुला आसमान...सूरज का तेज लोगों को पसीना-पसीना किए हुए था। पास ही एक हैंडपंप था...जहां लोगों की भारी भीड़ लगी हुई थी। दो लोग अपनी प्यास बुझाने के बाद...मेरे ही बगल में आकर बैठ गए और आपस में बातचीत करने लगे। एक ने कहा भाई, मैं तो बड़ा परेशान हूं..."बाबूजी ने बहन को पढ़ा लिखा कर इंजीनियर तो बना दिया...लेकिन अब उसके लिए लड़का कहां से खोजें ! इंजीनियर लड़की के लिए कम-से-कम डॉक्टर लड़का तो चाहिए ही! सिपाही का भी दहेज एक लाख रुपये और मोटर साइकिल मांग रहे हैं...बाबूजी ने तो सारी कमाई हमलोगों को पढ़ाने लिखाने में लगा दी। कोई भी इंजीनियर, डॉक्टर चार-पांच लाख से कम थोड़े ही लेगा। हमलोगों के पास रुपया है नहीं और अब किसी अच्छे लड़के के दरवाजे पर जाने की हिम्मत नहीं हो रही है...समझ में नहीं आ रहा है- क्या करें । " दूसरे ने कहा "बेवकूफ हो डॉक्टर, इंजीनियर और सिपाही-दारोगा न दहेज मांगेगा...हर गांव में दस लड़के कुर्ता-पाजामा पहन कर घूम रहें हैं...किसी भी ठीक-ठाक लड़के को देखकर शादी कर दो...आगे उसकी किस्मत"। इस घटना के करीब 15 साल से अधिक हो चुके हैं...लेकिन इसका मतलब अब धीरे-धीरे समझ में आ रहा है। तब बेरोजगारी और बेकारी ने हर गांव में कुछ लोगों को नेता बना दिया...आज उनकी तादाद सैकड़ों में हो गई है। इनका नेता बनना मजबूरी थी, लेकिन इनके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था। अब देश के अंदर न जाने कितने करोड़ नौजवान नेता बन गए हैं। समाजसेवा के लिए नहीं, बल्कि इसलिए की उनके पास कोई काम नहीं है। हज़ारों में किसी एक को कामयाबी मिलती है...उसका करियर संवरता है...लेकिन बाकी उम्मीदों का दामन पकड़े अपनी मंजिल की तलाश में भटक रहे हैं। देश में हर जगह नेता ही नेता दिखाई देते हैं, लेकिन एक भी ऐसा लीडर दिखाई नहीं देता जो इस देश को एक दिशा दे सके। ज्यादातर का एक ही मकसद दिखाई देता है, किसी तरह से उसे टिकट मिले और उसका जीवन संवरे। लेकिन कितनों का जीवन संवरेगा। राजनीति भी अब जमीन-जायदाद की तरह अपनी अगली पीढ़ी को ट्रांसफर की जा रही है, पहले भी होता रहा है। लेकिन अब स्वरुप थोड़ा बदल गया है। जिनको राजनीति विरासत में मिल रही है, उनके सोचने और काम करने का नजरिया जरा हट कर है। वो अच्छे पढ़े लिखे हैं...उनके सोचने का तरीका अलग है। ऐसे में गांव के कुर्ता-पाजामा धारी नेताओं को कहां और कितनी जगह मिलेगी ये भगवान ही बेहतर जानते होंगे। लोकसभा चुनाव में अब ज्यादा दिन नहीं हैं...प्रधानमंत्री के दावेदारों की भी कमी नहीं है। कई छोटी-बड़ी पार्टियां अपनी-अपनी अहमियत जताने में लगी हुई हैं। हर कोई यही दावा कर रहा है कि अगर उनकी सरकार बनीं तो वे ये कर देंगे...वो कर देंगे। आज के नेता जनता के बीच कम और टीवी शो में ज्यादा दिखाई देते हैं। जो ईमानदार और साफ-सुथरी छवी वाले हैं उनका जनाधार नहीं है...जिनका जनाधार है उनके अपने-अपने एजेंडे हैं। वो या तो राज्य विशेष की बात करते हैं या फिर किसी दूसरे एजेंडे को लेकर आगे बढ़ने की बात करते हैं। पूरे देश को साथ लेकर बहुत ही कम नेता चलने की बात करते हैं। काश ! कोई ऐसा लीडर होता जो इस देश के हर तपके की बात करता...विकास के झोंके आम आदमी तक पहुंचाता ? एक सवाल मेरे मन में रह-रह कर उठता है कि देश में नेता तो इतने पैदा हो गए हैं। लेकिन क्या कोई ऐसा लीडर नहीं है, जो पंडित नेहरु और सरदार पटेल जैसी सोच और वृहत दृष्टिकोण रखता हो...जिसमें लाल बहादुर शास्त्री जैसी सादगी हो...इंदिरा गांधी जैसी दृढ़ इच्छा शक्ति हो ! जिसमें महात्मा गांधी या लोकनायक जयप्रकाश नायारण जैसा त्याग हो !
Tuesday, January 13, 2009
...और कितने फतवे ?
बांग्लादेश में इन दिनों एक फतवे पर चर्चा गर्म है। इस फतवे ने न सिर्फ महिलाओं बल्कि पुरुषों को भी सकते में डाल दिया है। चटगांव के फिरोजपुर इलाके में बारा मस्जिद है। मस्जिद की दीवार पर लिखा है 'इस सड़क पर महिलाओं का आना-जाना वर्जित है।' यानी इस सड़क पर महिलाएं नहीं चल सकती हैं क्योंकि सड़क के किनारे मस्जिद है। इस सड़क की रखवाली का जिम्मा है एक रिटायर्ड सैनिक सत्तार पर, जो लाठी लेकर पिछले एक महीने से सड़क की रखवाली कर रहे हैं। सत्तार खुद को पीर बताते हैं। इसी सड़क पर इलाके का डाकघर और कुछ लोगों के अपने घर भी हैं। अस्पताल के लिए भी इसी सड़क से होकर जाना होता है। किसी महिला की समझ में ये नहीं आ रहा है कि आखिर वो डाकघर या अस्पताल कैसे जाए? अपने घर का जरुरी सामान खरीदने बाज़ार कैसे जाए? कुछ अखबारों के मुताबिक अगर कोई महिला इस फतवे को नज़रअंदाज़ करते हुए सड़क पर निकलती है तो उसे धमकाया जाता है। स्कूल जानेवाली लड़कियों पर फब्तियां कसी जाती है। अच्छा है कि इस फतवे का दायरा बहुत सीमित है लेकिन अगर ये फिरोजपुर की बारा मस्जिद से निकल कर दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी पहुंच जाए तो महिलाओं के एक बड़े वर्ग का सड़कों पर निकलना ही दुर्भर हो जाए? अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब मलयेशिया में एक इस्लामी संगठन ने मुस्लिम समुदाय के लोगों पर योग करने पर रोक लगा दिया था। इनका तर्क था कि योग के दौरान कसरत के अलावे कुछ खास तरह की पूजा और मंत्रोच्चारण होता है, जो मुसलमानों के लिए प्रतिबंधित है। बांग्लादेश और मलयेशिया के बाद अब पाकिस्तान की बात। यहां भी अजब-गजब के फतवे जारी होते हैं। हाल ही में तालिबान ने अपनी पकड़ वाले इलाकों में एक फरमान जारी किया। इसमें लोगों से कहा गया कि वह अपनी बेटियों का निकाह आतंकवादियों से करें अथवा गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। पाकिस्तान के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर में जबरन निकाह का यह अभियान चल रहा है। ऐसे न जाने कितने फतवे आते-जाते रहते हैं। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि इस बदलते दौर में भी इस तरह
के फतवे आ कैसे जाते है ? इन्हें जारी करने वालों का मकसद क्या होता है? समाज को ठीक करना या समाज में अपनी अहमियत जताना? इतिहास में मैंने मुगल बादशाह अकबर की कहानी पढ़ी थी...हाल हीं में एक फिल्म आई जोधा-अकबर। दरअसल ये फिल्म अकबर और जोधा के ऊपर है जो उस वक्त की सामाजिक स्थिति को बड़ी अच्छी तरह से बयां करती है। अकबर ने जोधा से विवाह किया, जो राजपूत थी। अकबर के इस फैसले पर भी मुझे लगता है उस दौर में जरुर फतवे जारी हुए होंगे...लेकिन फतवा जारी करनेवालों में इतनी हिम्मत नहीं होगी की वो शहंशाह से लोहा लें या अकबर की आवाज के सामने उनकी आवाज़ को बल मिल सके। लेकिन शहंशाह की जगह कोई आम आदमी होता तो उसका क्या हाल होता सोचा जा सकता है! जितनी दुनिया एक हज़ार साल में नहीं बदली उतनी करीब सौ साल में बदली है...जितनी सौ साल में नहीं बदली उतनी दस साल में बदली है...और अब तो गति काफी तेज़ हो गई है। समय वक्त को पहचाने और उसके मुताबिक आगे बढ़ने का है...समाज़ को आगे ले जाने का है ...पीछे धकेलने का नहीं !
के फतवे आ कैसे जाते है ? इन्हें जारी करने वालों का मकसद क्या होता है? समाज को ठीक करना या समाज में अपनी अहमियत जताना? इतिहास में मैंने मुगल बादशाह अकबर की कहानी पढ़ी थी...हाल हीं में एक फिल्म आई जोधा-अकबर। दरअसल ये फिल्म अकबर और जोधा के ऊपर है जो उस वक्त की सामाजिक स्थिति को बड़ी अच्छी तरह से बयां करती है। अकबर ने जोधा से विवाह किया, जो राजपूत थी। अकबर के इस फैसले पर भी मुझे लगता है उस दौर में जरुर फतवे जारी हुए होंगे...लेकिन फतवा जारी करनेवालों में इतनी हिम्मत नहीं होगी की वो शहंशाह से लोहा लें या अकबर की आवाज के सामने उनकी आवाज़ को बल मिल सके। लेकिन शहंशाह की जगह कोई आम आदमी होता तो उसका क्या हाल होता सोचा जा सकता है! जितनी दुनिया एक हज़ार साल में नहीं बदली उतनी करीब सौ साल में बदली है...जितनी सौ साल में नहीं बदली उतनी दस साल में बदली है...और अब तो गति काफी तेज़ हो गई है। समय वक्त को पहचाने और उसके मुताबिक आगे बढ़ने का है...समाज़ को आगे ले जाने का है ...पीछे धकेलने का नहीं !
Monday, January 12, 2009
हाथियों पर मंदी की मार
मंदी की मार से क्या आदमी...क्या जानवर सभी परेशान हैं। भारत में सत्यम डूबी मंदी के चक्कर में...अमेरिका में 26 लाख लोगों की नौकरी गई मंदी के चक्कर में...यूरोप में लाखों लोगों की रोजी-रोटी गई मंदी के चक्कर में...तनख्वाह कम हो रही है मंदी के चक्कर में...नौकरियों से निकालने का सिलसिला जारी है- सब मंदी के चक्कर में। आर्थिक विकास का बुलबुला अब फूट चुका है। अब हर कोई भगवान से यही प्रार्थना कर रहे हैं- ये प्रभु इस मंदी से उबारो। मंदी का असर जिम्बाब्वे में तो इस कदर है कि वहां सैनिकों को खाने के लिए हाथी का मांस दिया जा रहा है यानी खाना तक देने के लिए पैसे नहीं हैं। हाथी का मांस दिए जाने के दो कारण हैं। एक तो हाथी का मांस वहां बहुत सस्ता है और दूसरा जिम्बाब्वे में हाथी आसानी से अपलब्ध हैं। कुछ दिनों पहले बीबीसी की वेब साइट पर जिम्बाब्वे में सैनिकों के खाने में हाथी का मांस दिए जाने की खबर छपी थी। एक अनुमान के मुताबिक जिम्बाब्वे में करीब एक लाख हाथी हैं और यह संख्या इतनी अधिक है कि आर्थिक संकट झेल रहे ज़िम्बाब्वे के जंगलों में इन्हें रखना कठिन साबित हो रहा है। हाथी का मांस परोसे जाने का सिलसिला पिछले साल जून में शुरु हुआ लेकिन हाल ही में इसमें बढ़ोत्तरी हुई है। ज़िम्बाब्वे के राष्ट्रीय जंगलों में 45 हज़ार हाथियों को रखने की सुविधा है यानी करीब 55 हज़ार हाथी ज्यादा हैं और यही तादाद वहां परेशानी पैदा कर रही है। जिम्बाब्वे के आर्थिक हालत फटेहाल हैं। जानकारों का कहना है कि देश में कई सरकारी कर्मचारियों की तनख़्वाह तो सिर्फ़ इतनी है कि उतने पैसों में वे घर से दफ्तर तक आना-जाना ही कर सकते हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि जानवरों का क्या हाल होगा? लोग कैसे अपना जीवन-यापन कर रहे होंगे? दुनिया के कुछ और हिस्सों में हो सकता है इससे भी और बदतर हालात हों!
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