बांग्लादेश में इन दिनों एक फतवे पर चर्चा गर्म है। इस फतवे ने न सिर्फ महिलाओं बल्कि पुरुषों को भी सकते में डाल दिया है। चटगांव के फिरोजपुर इलाके में बारा मस्जिद है। मस्जिद की दीवार पर लिखा है 'इस सड़क पर महिलाओं का आना-जाना वर्जित है।' यानी इस सड़क पर महिलाएं नहीं चल सकती हैं क्योंकि सड़क के किनारे मस्जिद है। इस सड़क की रखवाली का जिम्मा है एक रिटायर्ड सैनिक सत्तार पर, जो लाठी लेकर पिछले एक महीने से सड़क की रखवाली कर रहे हैं। सत्तार खुद को पीर बताते हैं। इसी सड़क पर इलाके का डाकघर और कुछ लोगों के अपने घर भी हैं। अस्पताल के लिए भी इसी सड़क से होकर जाना होता है। किसी महिला की समझ में ये नहीं आ रहा है कि आखिर वो डाकघर या अस्पताल कैसे जाए? अपने घर का जरुरी सामान खरीदने बाज़ार कैसे जाए? कुछ अखबारों के मुताबिक अगर कोई महिला इस फतवे को नज़रअंदाज़ करते हुए सड़क पर निकलती है तो उसे धमकाया जाता है। स्कूल जानेवाली लड़कियों पर फब्तियां कसी जाती है। अच्छा है कि इस फतवे का दायरा बहुत सीमित है लेकिन अगर ये फिरोजपुर की बारा मस्जिद से निकल कर दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी पहुंच जाए तो महिलाओं के एक बड़े वर्ग का सड़कों पर निकलना ही दुर्भर हो जाए? अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब मलयेशिया में एक इस्लामी संगठन ने मुस्लिम समुदाय के लोगों पर योग करने पर रोक लगा दिया था। इनका तर्क था कि योग के दौरान कसरत के अलावे कुछ खास तरह की पूजा और मंत्रोच्चारण होता है, जो मुसलमानों के लिए प्रतिबंधित है। बांग्लादेश और मलयेशिया के बाद अब पाकिस्तान की बात। यहां भी अजब-गजब के फतवे जारी होते हैं। हाल ही में तालिबान ने अपनी पकड़ वाले इलाकों में एक फरमान जारी किया। इसमें लोगों से कहा गया कि वह अपनी बेटियों का निकाह आतंकवादियों से करें अथवा गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। पाकिस्तान के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर में जबरन निकाह का यह अभियान चल रहा है। ऐसे न जाने कितने फतवे आते-जाते रहते हैं। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि इस बदलते दौर में भी इस तरह
के फतवे आ कैसे जाते है ? इन्हें जारी करने वालों का मकसद क्या होता है? समाज को ठीक करना या समाज में अपनी अहमियत जताना? इतिहास में मैंने मुगल बादशाह अकबर की कहानी पढ़ी थी...हाल हीं में एक फिल्म आई जोधा-अकबर। दरअसल ये फिल्म अकबर और जोधा के ऊपर है जो उस वक्त की सामाजिक स्थिति को बड़ी अच्छी तरह से बयां करती है। अकबर ने जोधा से विवाह किया, जो राजपूत थी। अकबर के इस फैसले पर भी मुझे लगता है उस दौर में जरुर फतवे जारी हुए होंगे...लेकिन फतवा जारी करनेवालों में इतनी हिम्मत नहीं होगी की वो शहंशाह से लोहा लें या अकबर की आवाज के सामने उनकी आवाज़ को बल मिल सके। लेकिन शहंशाह की जगह कोई आम आदमी होता तो उसका क्या हाल होता सोचा जा सकता है! जितनी दुनिया एक हज़ार साल में नहीं बदली उतनी करीब सौ साल में बदली है...जितनी सौ साल में नहीं बदली उतनी दस साल में बदली है...और अब तो गति काफी तेज़ हो गई है। समय वक्त को पहचाने और उसके मुताबिक आगे बढ़ने का है...समाज़ को आगे ले जाने का है ...पीछे धकेलने का नहीं !
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1 comment:
अच्छा है
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