Tuesday, February 18, 2014
Friday, February 7, 2014
तेलंगाना का अग्निपथ
तेलंगाना को लेकर हर
सियासी पार्टी अपने-अपने नफे-नुकसान का हिसाब लगा रही है। अलग राज्य की मांग को
लेकर हिंसा और उपद्रव हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। अभी जिस
क्षेत्र को तेलंगाना कहा जाता है, उसमें आंध्र प्रदेश के 23 में से 10 जिले आते
हैं। कभी ये इलाका निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा हुआ करता था। आजादी के बाद
निजाम की रियासत खत्म कर हैदराबाद राज्य का गठन किया गया। 1956 में हैदराबाद का
हिस्सा रहे तेलंगाना को नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया। दरअसल, चालीस के
दशक में ही इस इलाके में कम्युनिस्टों ने अलग तेलंगाना की आवाज को बुलंद किया। तब
इस आंदोलन का मकसद भूमिहीनों को जमीन का मालिक बनाना था। लेकिन, ये आंदोलन जल्दी
ही कमजोर पड़ गया और धीरे-धीरे इस इलाके में नक्सलियों का प्रभाव बढ़ने लगा। उसके
बाद, फिर अलग तेलंगाना की आवाज 1969 में उठी। जिसका नेतृत्व कांग्रेस के चन्ना
रेड्डी ने किया था। इसके लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तेलंगाना प्रजा समिति
बनाई। लेकिन, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में उनकी फिर कांग्रेस में वापसी हुई और
उन्हें आंध्र का मुख्यमंत्री बनाया गया। चेन्ना रेड्डी के बाद तेलंगाना क्षेत्र से
आए पीवी नरसिंह राव भी सूबे के मुख्यमंत्री बने। सियासी बिसात पर तेलंगाना के लोग
मोहरे की तरह इस्तेमाल होते हैं। नेताओं ने अलग राह पकड़ी और आंदोलन धीरे-धीरे
कमजोर होने लगा। लेकिन, के चंद्रशेखर राव ने इस आंदोलन को नई धार दी। 2001 में
टीडीपी से अलग होकर चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन किया। 2004 के
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने टीआरएस का समर्थन करते हुए फायदा उठाया और चंद्रशेखर
राव को केंद्र में मंत्री भी बनाया। लेकिन, चंद्रशेखर राव को अपनी सियासी जमीन पर
किए गए वादे याद रहे और वो तेलंगाना के मुद्दे पर यूपीए गठबंधन से अलग हो गए।
कहते हैं राजनीति में वक्त सबसे बड़ा पहलवान
होता है। आज अलग तेलंगाना के विरोध में जो सियासी तूफान खड़ा हुआ है, उसकी एक बड़ी
वजह इस मुद्दे को लगातार लटकाए रखना भी है, अगर चुनावी नफा-नुकसान से ऊपर उठ कर
बंटवारे का सही समय पर फैसला हुआ होता तो शायद आज ये नौबत नहीं आती। कांग्रेस ने
पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगन मोहन रेड्डी के साथ अपने रिश्ते भी
बुरी तरह से खराब कर लिए हैं। ऐसे में, सीमांध्र में तो कांग्रेस की सियासी जमीन
काफी हद तक खिसकती दिख ही रही है, तेलंगाना क्षेत्र में भी कांग्रेस को इसका
ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा है। अलग तेलंगाना बनने का पूरा श्रेय टीआरएस लेने में
कोई कसर नहीं छोड़ेगी, क्योंकि आंदोलन की जमीन तो उसी की है। चंद्रबाबू नायडू हों
या जगन मोहन रेड्डी, चंद्रशेखर राव हों या फिर किरण कुमार रेड्डी सभी अपने सियासी
चश्में से अगले चुनाव की ओर देख रहे हैं। लेकिन, सियासत से हट कर एक बड़ा सवाल ये
भी है कि क्या अलग तेलंगाना बनने से वहां के लोगों की किस्मत का बंद दरवाजा खुलेगा?
केंद्र हैदराबाद को अगले 10 वर्ष तक सीमांध्र और
तेलंगाना की साझा राजधानी बनाना चाह रहा है। असली लड़ाई हैदराबाद को लेकर ही है।
दोनों पक्षों में से कोई भी हैदराबाद को अपने हाथ से छिटकने नहीं देना चाहता है।
दरअसल, हैदराबाद शहर और उसके पास के इलाके से राज्य के राजस्व का 55 प्रतिशत
हिस्सा आता है यानी करीब 40 हज़ार करोड़ रुपये। इसी तरह केंद्र सरकार को भी आंध्र
प्रदेश से मिलने वाले राजस्व का करीब 65 फीसदी हिस्सा इसी शहर से मिलता है।
स्थानीय कर के रुप में भी इसी शहर से लगभग 15 हज़ार करोड़ रुपए वसूले जाते हैं।
इसीलिए, सूबे की अर्थव्यवस्था की इस धूरी को कोई अपने हाथ से खिसकने नहीं देना
चाहता।
हैदराबाद
से निकल कर अगर तेलंगाना के दूसरे हिस्सों को देखा जाए तो तस्वीर बिल्कुल अलग है।
किसानों की हालत अच्छी नहीं है। प्रकृतिक संसाधनों के मामले में भले ही ये इलाका
संपन्न हो, इसके बावजूद विकास की दौड़ में काफी पिछड़ा हुआ है। नक्सलियों के
ज्यादातर बड़े कमांडर तेलंगाना इलाके से ही आते हैं। अगर करीमनगर जिले को ही देखा
जाए तो यहां से मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति, पुल्लुरी प्रसाद राव, थिप्परी
तिरुपति, मल्लाजुला वेणुगोपाल, मल्लराजी रेड्डी जैसे नक्सली कमांडर आते हैं। ऐसे
में आशंका जताई जा रही है कि कहीं तेलंगाना भी नक्सलियों का नया गढ़ न बन जाए। छत्तीसगढ़
और झारखंड को बने 13 साल हो गए हैं लेकिन, अभी भी लाल आतंक का खौफ पहले की तरह ही
बरकरार है। छत्तीसगढ़ और झारखंड दोनों ही खनिज संपदा के मामले में बहुत धनी हैं।
इसके बावजूद वहां के आम-आदमी के जन-जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया।
छोटे
राज्यों के गठन के पीछे तर्क दिया जाता है कि सूबे की राजधानी से दूर-दराज के
इलाकों तक विकास की हवा और सरकारी नीतियों का फायदा आम-आदमी तक नहीं पहुंच पाता
है, इसलिए वो विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। इस असंतुलन को दूर करने के लिए
छोटे राज्यों की वकालत की जाती है। तेलंगाना क्षेत्र को लोगों को भी राजनीति के
महारथियों ने बड़े-बड़े सपने दिखाए हैं। गरीब की उम्मीद कभी खत्म नहीं होती।
क्योंकि उम्मीद पालने के लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। तेलंगाना क्षेत्र के लोग
फिर सपने को घोड़े पर सवार हैं। इन्हें उम्मीद है कि अलग तेलंगाना राज्य बनने से
शायद इनकी बंद किस्मत का दरवाजा खुल जाए। कुछ ऐसा ही सपना झारखंड और छत्तीसगढ़ के
गठन से पहले वहां के लोगों ने भी देखा था। लेकिन दोनों राज्यों के गठन के 13 साल
बाद भी वहां के लोगों को गरीबी और फटेहाली से आजादी नहीं मिल पाई है। झारखंड और
छत्तीसगढ़ में विकास तो दूर, कई नई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। नए राज्यों के गठन से
कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तो जरुर हुई, लेकिन आम आदमी ने
विकास और अपने दिन बदलने का जो सपना देखा था वो पूरा नहीं हुआ। ऐसे में जरुरी है
कि सरकारी नीतियों का स्वरुप और क्रियान्वयन ऐसा हो, जिससे विकास की बयार राज्य के
कोने-कोने तक पहुंचे। सूबे की राजधानी से सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव में रह
रहे आम आदमी को ये महसूस न हो कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है या उस तक सरकारी
योजनाओं का फायदा कम पहुंच रहा है, वो विकास की दौड़ में पिछड़ रहा है।
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