Monday, April 12, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-1)
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए देश के सबसे बड़े नक्सली हमले ने माओवादियों की कार्यशैली और उनकी क्रांतिकारी सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ ने अपने 76 जवानों को खोया। ऐसे जवान जो अपनी रोजी-रोटी या कहें देश सेवा के लिए सीआरपीएफ में शामिल हुए। ये जवान भी कमोवेश वैसी ही पृष्ठभूमि से आते हैं जैसी पृष्ठभूमि से माओवादियों के लड़ाके आते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों में कोई ख़ास अंतर आपको नहीं दिखेगा। फिर इन जवानों की हत्या का क्या मतलब है? कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा “ये माओवादी हैं जिन्होंने राज्य को दुश्मन और संघर्ष को युद्ध का नाम दिया है। हमने इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।” चिदंबरम साहब ने जब दंतेवाड़ा हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की तो एक सुर में आवाज आई कि ये वक्त इस्तीफा देने का नहीं संघर्ष करने का है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नक्सली समस्या को सबसे बड़ी चुनौती बता चुके हैं। अगर मोटे पर देखा जाए तो हिंदुस्तान के 630 जिलों में से 180 नक्सलियों के शिकंजे में हैं। हिंदुस्तान में कई लालगढ़ तैयार हो चुके हैं। सबसे पहले बात छत्तीसगढ़ की। यहां के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, राजनांदगांव आदि के करीब 2300 से अधिक गांवों पर नक्सलियों का प्रभाव है। बस्तर में 300 गांव ऐसे हैं जहां कुछ वर्षों से न तो कोई पुलिस अधिकारी गया और न हीं प्रशासन का। यहां के तेरह हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत नक्सली चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ का अबूझमाढ़ इलाका इनका सबसे सुरक्षित ठिकाना है। करीब चार हज़ार किलोमीटर में फैला ये इलाका सुरक्षाबलों के लिए चक्रव्यूह की तरह है। इसके भीतर की स्थिति ये है कि यहां के 50 गांवों का अब तक कोई सर्वे नहीं हुआ है। 10 साल से इलाके में पुलिस के जवानों ने कदम तक नहीं रखा है। यहां सैकड़ों पुलिसवाले नक्सलियों की गोलियों का शिकार हुए हैं। आलम यह है कि कई थाना क्षेत्रों में नक्सलियों से बचने के लिए पुलिस के जवान सिविल ड्रेस में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बाद उससे सटे झारखंड का नंबर आता है। यहां के 24 में से 18 जिलों में नक्सलियों का दबदबा है। यहां तक की राजधानी रांची पर भी नक्सलियों का प्रभाव है। इस इलाके में नक्सलियों के मुख्य कमांडर हैं गणपति और किसन। वेंकटेश्वर राव उर्फ किसन और गणपति नक्सलियों की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। आंध्र प्रदेश का रहनेवाल किसन फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है। साथ ही दूसरी भाषाओं मसलन हिंदी, बांग्ला, उड़िया सहित कई भाषाओं का जानकार है। मीडिया से बातचीत भी अक्सर किसन ही करता है। वहीं, बांगाल का रहनेवाला गणपति क्षेत्र विस्तार, भविष्य की योजनाएं तैयार करना, दूसरे राज्यों के नक्सलियों से संपर्क और ऑपरेशन का आइडिया देने का काम करता है। आंधप्रदेश के करीमनगर, वारंगल, नालमला, पालनाडु और उत्तरी तेलंगाना में लाल आतंक पसरा हुआ है। वहीं, उड़ीसा से लगती सीमा पर इनकी गतिविधियां और प्रभाव काफी अधिक हैं। उड़ीसा के 17 जिले नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित हैं। महाराष्ट्र में भी एक अनुमान के मुताबिक 15 से 29 तक गुरिल्ला संगठन सक्रिय हैं। बिहार के 38 में से 34 जिलों में नक्सलियों का कम-ज्यादा असर है। करीब 150 प्रखंडों में उनकी जन अदालतें लगती हैं। बिहार के माओवादियों के नेपाली माओवादियों से रिश्तों के सबूत मिले हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुड़ा के करीब 350 गांव लाल आतंक की चपेट में हैं। कई गांवों में तो पुलिस का पहुंचना तक मुश्किल है। यूपी के सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जिले के करीब 600 गांवों पर नक्सलियों का साया है। अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो बालाघाट क्षेत्र के करीब तीन हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 100 गांवों में लाल झंडा दिखाई देता है। देश के भीतर न जाने ऐसे कितने और लालगढ़ बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। इन इलाकों में नक्सली अपनी हुकूमत चलाते हैं। अपनी अदालत लगाते हैं। फटाफट सबके सामने फैसले करते हैं। वहां रहनेवाले लोगों के मन में राज्य के खिलाफ जहर भरते हैं। सरकार से लोहा लेने के लिए लड़ाकों की भर्ती करते हैं और उनका तनख्वाह भी देते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर ये दूसरी हिंसक व्यवस्था को जगह कैसे मिली? लोकतंत्र दुनिया के सबसे अधिका शासन प्रणाली इसलिए माना जाता हैं क्योंकि इसमें समाज के सबसे कमजोर आदमी का भी पक्ष लिया जाता है। उसकी सरकार बनाने में भागीदारी होती है। लेकिन बंदूक और गोलियों के बल पर हिंदुस्तान में पैदा हो रहे लालगढ़ को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।
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1 comment:
हम चीजो को अपनी दृष्टि से देखते है। आप जब तक उनके बीच जा कर सारी चीजो को नही देखेंगे, नही समझेगे तो आपकी सुचना सच कैसे होगी - आपका आकलन दुरुस्त कैसे होगा। घटना हुई - लोगो के दिल मे चोट लगी - और लिखने बैठ गए । सिर्फ इसलिए क्योकि लिखना जानते है। क्या फायदा ऐसे लेखन से। क्या माओवादी या नक्सली स्वस्फुर्त रुप से पैदा हो गए है ? क्या इन्हे सरकारी धन और लडाकु विद्या उपलब्ध हो रही है। कहां से?
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