Thursday, April 22, 2010
खेल के पीछे का खेल !
क्रिकेट के नए अवतार आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग ने खेल का मतलब ही बदल दिया। इंग्लैंड से निकला बल्ले और गेंद का ये खेल दुनिया के कोने-कोने में जा पहुंचा और हमारे यहां तो इसे धर्म के बराबर का दर्जा हासिल है। सचिन तेंदुलकर को लोग क्रिकेट का भगवान कहते हैं। सबका अपना-अपना नजरिया है। क्रिकेट का जुनून ऐसा कि जिस आदमी से पूछिए वही बता देगा कि हार की वजह क्या थी ? जीत कैसे मिलेगी? भले ही उसे अपने घर के बारे में ही ठीक से पता न हो लेकिन दुनिया की कौन सी क्रिकेट टीम का गणित क्या है...उसे अच्छी तरह से पता होगा। सबका अपना-अपना स्तर है...अपना-अपना विश्लेषण। मैं क्रिकेट नहीं देखता तो ये मेरी बदकिस्मती या खुशकिस्मती हो सकती है। लेकिन आप जो देख रहे थे क्या वो वाकई बल्ले और गेंद के सहारे ईमानदारी से खेला गया खेल था या खेल के नाम पर आपकी भावनाओं के साथ खेला जा रहा था। वनडे और टेस्ट को लेकर कई बार सवाल खड़े हुए हैं। कई तरह विवाद पैदा हुए हैं। आज के दौर में ये क्रिकेट का ही ग्लैमर है कि बच्चे वैज्ञानिक, इंजीनियर या डॉक्टर के बजाए धोनी और सचिन बनने का सपना पाल रहे हैं। किताब की जगह उनके हाथों में बैट-बॉल दिखती है। क्रिकेटरों की मोटी कमाई और शोहरत दिखती है...लेकिन उसके पीछे भी बहुत कुछ है। आईपीएल की धमाकेदार इंट्री ने क्रिकेट के भीतर एक नई संस्कृति को जन्म दिया। खेल के भीतर नए तरह के ग्लैमर का श्रीगणेश हुआ। इसमें टीमों की नीलामी, खिलाड़ियों की बोली, मजबूत मार्केटिंग रणनीति और क्रिकेट प्रेमियों के लिए चौके-छक्कों के साथ मजा देने के लिए चीयर लीडर्स का नाच सब है। ये तो वो है जो पूरी दुनिया जानती है। लेकिन इसके अलावे भी बहुत कुछ है...जो क्रिकेट प्रेमियों को अभी जानना है। देश के हर हिस्से में आयकर विभाग की टीमें छापा मारकर आईपीएल का पूरा सच सामने लाने की कोशिश कर रही हैं। शायद ये सामने न आता अगर शशि थरूर और ललिल मोदी ट्विटर पर आमने-सामने नहीं होते। थरुर की तो विदेश राज्यमंत्री पद से छुट्टी हो गई है लेकिन अभी आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी की विदाई बाकी है। ऐसा लग रहा है कि इस खेल में सब कुछ फिक्स था यानी टीमों की नीलामी से लेकर बोली तक। कुछ मैचों के भी फिक्स होने की ख़बरे उड़ती-उड़ती आ रही हैं। आईपीएल के एक दफ्तर से तो करार संबंधी ही कागजात गायब है। कुछ और भी कागजातों के गायब होने की ख़बरें आ रही हैं। राजनीतिज्ञ भी अब यही कहते नज़र आ रहे हैं कि हमारा आईपीएल से कोई लेनादेना नहीं है...हम तो बस मैच देखने जाते हैं। आईपीएल पर कई आरोप लगे हैं जैसे- नीलामी प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं, नीलामी को फिक्स करने का आरोप, आईपीएल के जरिए रिश्तेदारों को फायदा, पैसे के आने-जाने के हिसाब में पारदर्शिता नहीं, विदेश स्थित बैंकों के जरिए लेन-देन, मैच फिक्सिंग के आरोप, सट्टेबाजी के आरोप और सबसे बड़ा सवाल तीन साल में कहां से आया बेशुमार धन। ये भी सामने आया कि एक टीम की बोली लगाने वालों को ये भी पता नहीं था कि वो किसके लिए बोली लगा रहे हैं यानि टीम का मालिक कौन होगा? तब क्रिकेट में अंडरवर्ल्ड के पैसे की बात भी सामने आई थी। अब बड़ा सवाल ये है कि इन सबके पीछे क्या सिर्फ ललित मोदी हैं? या मोदी सिर्फ मोहरा हैं और परदे के पीछे से चाल कोई और चल रहा है?
Tuesday, April 20, 2010
ये खतरा टल जाए !
आइसलैंड में ज्वालामुखी के फटने से फैली राख ने यूरोप की अर्थव्यवस्था को चौपट करना शुरू कर दिया है। विमान कंपनियों पर इसका साफ असर दिख रहा है। दुनिया भर की विमान कंपनियों को रोज करीब 27 करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है। भारतीय विमान कंपनियों को भी अब तक एक अरब रुपये से अधिक का नुकसान हो चुका है। भारत के विभिन्न होटलों और एयरपोर्ट पर 40 हज़ार से अधिक यात्री फंसे हुए हैं। वेस्ट इंडीज में 30 अप्रैल से शुरू होनेवाले 20-20 वर्ल्ड कप पर भी संकट के बादल छाये हुए हैं। फुटबॉल, फॉर्मूला, एथलेटिक्स के करीब 150 आयोजन टाले जा रहे हैं। अगर बात इतनी तक रहती तो भारत के लिए कोई अधिक चिंता की बात नहीं थी। लेकिन ख़तरा इससे कहीं और बड़ा है। मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि यदि राख के बादल एक माह तक आसमान में बने रहे तो इसका मानसून पर असर पड़ सकता है। राष्ट्रीय मौसम केंद्र के महानिदेशक का कहना है कि राख के बादल जिस दिशा में बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगले एक पखवाड़े में वे मध्य एशिया को ढंक लेंगे। आइसलैंड के ज्वालामुखी से निकली राख ने अगर मानसून को किसी भी तरह से अपनी चपेट में ले लिया तो इसका भारत पर गंभीर असर पड़ेगा। भारत में मानसून के गड़बड़ाने का मतलब है पूरी अर्थव्यवस्था का पटरी से उतरना। भले ही कृषि क्षेत्र का हमारे सकल घरेलु उत्पाद में करीब 18 फीसदी का योगदान हो, लेकिन इसकी अप्रत्यक्ष भूमिका कहीं ज्यादा बड़ी और विस्तृत है। भारत में कृषि अपने आप में उत्पादन या रोजगार का साधन भर होने से कहीं ज्यादा जीवन जीने का जरिया है। तकरीबन 60 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। इसलिए मानसून के गड़बड़ाने का मतलब है अनुमान से कई गुना ज्यादा लोगों का प्रभावित होना यानि हमारी रोजमर्रा की समूची व्यवस्था का पलट जाना। हमारी 87 फीसदी खाद्य सुरक्षा, 40 फीसदी बिजली उत्पादन और 85 फीसदी से ज्यादा पेयजल की उपलब्धता मानसून पर ही टिकी है। पीने के पानी और भोजन की व्यवस्था अगर हमने किसी तरह से कर भी ली तो पशुओं का जीवन मुश्किल हो जाएगा। उद्योग धंधे चौपट हो जाएंगे, क्योंकि हर दिन उद्योगों के लिए भी 20,000 करोड़ गैलन पानी की जरूरत पड़ती है और यह आपूर्ति मानसून से ही होती है यानि पूरी व्यवस्था में कोहराम मच जाएगा। देश में खाद्यानों का उत्पादन कम होगा। साग-सब्जी नहीं उगेंगे यानि अनाजों की मांग बढ़ जाएगी और उत्पादन कम। फिर महंगाई आसमान पर होगी और खाने-पीने की जरुरी चीजें आम आदमी की पहुंच से दूर। ऐसी परिस्थितियां भूखमरी और गरीबी और बढ़ाएगी। हमारे यहां मानसून के मजबूत होने का मतलब है अर्थव्यवस्था का मजबूत होना और कमजोर होने का मतलब पर अर्थव्यवस्था का चरमराना। इसलिए, भगवान से हमें यही प्रार्थना करनी चाहिए की आइसलैंड के ज्वालामुखी से निकले राख का साया मानसून से दूर ही रहे।
Thursday, April 15, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-3)
देश में इस समय बड़ी बहस ये चल रही है कि आखिर नक्सलवाद का इलाज क्या है ? इसे कैसे खत्म किया जाए ? समाज का एक वर्ग सोचता है कि नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इनके सभी गढ़ों को हमेशा के लिए खत्म कर दिया जाना चाहिए। इसमें वायु सेना की भी मदद ली जानी चाहिए यानि जिन इलाकों में सेना का जाना मुश्किल है वहां आसमान से बम वर्षा की जानी चाहिए। लेकिन अगर सरकार नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करती है तो इसमें काफी खून-ख़राबे की आशंका है। काफी निर्दोष लोग इसमें मारे जा सकते हैं। सेना और वायुसेना की ट्रेनिंग दूसरे तरह की होती है। इनका इस्तेमाल बाहरी दुश्मनों के लिए तो उत्तम है लेकिन देश के भीतर के दुश्मनों के लिए ठीक नहीं है। क्योंकी सेना आक्रमण करती है तो उसके अंजाम की चिंता नहीं करती...नुकसान की परवाह नहीं करती। शायद इसीलिए सरकार ने अब तक इस विकल्प पर विचार नहीं किया है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिंदबरम ने साफ-साफ कहा कि नक्सलियों से निपटने के लिए अर्धसैन्य बलों के जवान और राज्य पुलिस काफी हैं। सरकार का ये फैसला काफी हद तक ठीक लगता है। हालांकि चिदंबरम की इस नीति का कांग्रेस के ही कुछ वरिष्ठ लोग विरोध कर रहे हैं। क्योंकि इन इलाकों में लालगढ़ के सिर्फ सिपाही ही नहीं गरीब-मजदूर और मजबूर लोग भी हैं। यहां सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती नक्सलियों और आम आदमी में फर्क करने की होगी। क्योंकि नक्सली जिस तरह से लालगढ़ों में आम लोगों से मिले हुए हैं उनकी पहचान करना मुश्किल है और जब पहचान करने में इतनी मुश्किल होगी तो कितनों के साथ अन्याय होगा कहना मुश्किल है। अगर एक सही आदमी नक्सलियों के धोखे में मारा या पकड़ा गया तो दस आदमी सरकार और सैन्य बलों के खिलाफ खड़े हो जाएंगे। इसलिए इस समस्या का हल इसकी जड़ों से ही तलाशना होगा। वर्ना हम पेड़ से पत्ते साफ करते रहेंगे और नए पत्ते उगते रहेंगे। इसकी पहल राजनीति दलों और स्वयंसेवी संस्थाओं से होनी चाहिए। लोगों से जुड़ने का काम राजनीतिक पार्टियों का है इसलिए मुख्यधारा की पार्टियों को लालगढ़ में घुसपैठ कर जनता के दिलों में जगह बनानी चाहिए। स्वयंसेवी संस्थाओं को विकास की दौड़ में काफी पीछे छूट चुके इन इलाकों में उम्मीद की नई किरण जगानी चाहिए। स्कूल खोलना चाहिए। जन-जागरुकता अभियान चलाना चाहिए। इसके बाद बारी आती है प्रशासन की। प्रशासन को अपनी मौजूदगी का एहसान हर आदमी को कराना चाहिए यानि सरकारी योजनाओं को आम-आदमी तक पहुंचाने के लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए जिससे लोगों के मन में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ जो जहर भरा है वो खत्म हो। इसके बाद दमदार भूमिका हो सकती है पुलिस और बंदूक की। जो लोग इस काम में रुकावट डालने की कोशिश करें उनसे सख्ती से निपटना सरकार का काम है। देश को लालगढ़ मुक्त करना कोई आसान काम नहीं है और बहुत मुश्किल भी नहीं। लालगढ़ मुक्त करने में जो कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं वो पूरे मन से इस दिशा में काम करें ये जरुरी नहीं। अगर सबने समाज में अपनी भूमिका का ईमानदारी से पालन किया होता तो आज इतने लालगढ़ भारत के नक्शे पर दिखते ही नहीं। इनसे निपटना बहुत मुश्किल इस लिए नहीं है क्योंकि लालगढ़ के सूबेदारों के अपने-अपने एजेंडे और अपना-अपना इलाका है। शासन-व्यवस्था का उनके पास कोई ऐसा रोड़मैप नहीं है जो आज के युग में हजम होता हो। अगर है तो वो अब तक सामने नहीं आया है। इसलिए लालगढ़ के खात्मे की शुरूआत जड़ से शुरू होनी चाहिए न की पत्तों से।
Tuesday, April 13, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-2)
भारत के अलग-अलग हिस्सों में पनपे लालगढ़ एक दिन में नहीं बने हैं। इसके लिए कोई एक शख्स भी जिम्मेदार नहीं है। 2007 जनवरी के बाद आतंक की आग में जितने लोग मारे गए उसके करीब तीन गुना से अधिक देश के भीतर पैदा हुए इस ‘सामाजिक आतंकवाद’ में मारे गए हैं। नक्सलवाद को सामाजिक आतंकवाद कहना ज्यादा ठीक रहेगा। क्योंकि यह समाज के भीतर और वर्तमान व्यवस्था के गर्भ से पैदा हुआ है। नक्सलवाद आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के अंतविरोध की कहानी है। यह विकास और प्रशासन की गैर-मौजूदगी के कारण उपजी समस्या है। इस नासूर के लिए देश के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। राजनीतिक पार्टियों का काम सिर्फ वोट मांगना और सरकार बनाना ही नहीं हैं बल्कि जनता से जुड़ने का भी काम उन्हीं का है। लालगढ़ पैदा होने का मतलब है कहीं न कहीं उस इलाके में राजनीतिक शून्यता थी। वहां के लोगों का दुख-दर्द सुननेवाला कोई नहीं थी। वहां का आदमी मुख्यधारा की राजनीति से कटा हुआ था। इसी राजनीति शून्यता, सरकारी अमले की अकर्मण्यता ने दुनिया की सबसे अच्छी व्यवस्था के भीतर नक्सलियों के लिए जगह बनाया। नक्सलियों का दर्शन आम आदमी या कहें जनता को आगे कर पीछे से हिंसा की रणनीति के सहारे आगे बढ़ रहा है। नक्सली हाथों में बंदूक लेकर कितने गरीबों को उनका हक दिलवा चुके हैं? नक्सलियों के लालगढ़ में आधुनिक विकास की हवा कितनी पहुंची है? व्यवस्था के भीतर पैदा हुई इस नई व्यवस्था ने कितने लोगों को दो वक्त की रोटी दी है। कितने लोगों को स्कूल और कॉलेज भेजा है? नक्सली दर्शन की वकालत करनेवाले अक्सर यही तर्क देते हैं कि उन इलाकों में जा कर देखिए आम आदमी की क्या हालत है। ये सच है कि हमारी व्यवस्था ने उन इलाकों के विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया...जितना शहरी इलाकों पर। जिससे विकास की ताजी हवा वहां तक पहुंच सके… लेकिन उस इलाके में रहनेवाले लोग या कहें शहरी इलाकों से ताजी हवा खाकर पहुंचे लोगों ने वहां के लोगों को क्या दिया? बंदूक का दर्शन। मरने और मारने की शिक्षा। दो वक्त की रोटी और सत्ता में भागीदारी का सपना। ये सच है कि दो वक्त की रोटी किसी भूखे के लिए उसकी पहली जरुरत है। लेकिन दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकना और अपने दर्शन को हकीकत में बदलने का सपना देखना कहां कि इंसानियत है। सुरक्षाबलों के जवानों का मारा जाना पूरे देश ने जाना क्योंकि वो एक कानूनी व्यवस्था का हिंसा थे। जिसे समाज मानता है। उनके परिवारवालों के दुख-दर्द में पूरा देश रोया क्योंकि वो सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए नहीं बल्कि देश के भीतर पैदा हुए सामाजिक आतंकवाद के खात्मे के लिए गए थे। इस लड़ाई में माओवादी लड़ाके भी मारे जाते हैं और आम आदमी भी। लेकिन किसकी कौन कितनी ख़बर लेता है ये लालगढ़ में रहनेवाला आम आदमी अच्छी तरह से जानता है। सामाजिक आतंक के इन गढ़ों में रहनेवाले ज्यादातर लोग किसी शौक से या किसी दर्शन की वजह से नक्सलियों को समर्थन नहीं देते बल्कि उनकी मजबूरी है। इन इलाकों में नक्सलियों के विरोध का मतलब एक तरह से राज्य का विरोध है क्योंकि इन इलाकों में नक्सली समानांतर सरकार चलाने का दावा करते हैं। जन अदालतों के माध्यम से फैसले करते हैं...और हमदर्दी को लिए थोड़ा बहुत लोगों के साथ भी खड़े रहते हैं। लेकिन, देश के पिछड़े इलाकों के लोगों को ये दर्शन और बंदूक की राजनीति कितनी आगे ले जाएगी? क्या वगैर बंदूक के क्रांति संभव नहीं है? क्या सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए बंदूक ही सबसे असरदार तरीका है? ये सच है कि दिल्ली ऊंची सुनती है। लेकिन गोलियों की आवाज़ भी सुनेगी ये जरुरी नहीं। दिल्ली तक अगर अपनी बात पहुंचानी है तो नक्सली नेताओं को बंदूक नहीं वार्ता का रास्ता चुनना चाहिए।
Monday, April 12, 2010
हिंदुस्तान में लालगढ़ (भाग-1)
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए देश के सबसे बड़े नक्सली हमले ने माओवादियों की कार्यशैली और उनकी क्रांतिकारी सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ ने अपने 76 जवानों को खोया। ऐसे जवान जो अपनी रोजी-रोटी या कहें देश सेवा के लिए सीआरपीएफ में शामिल हुए। ये जवान भी कमोवेश वैसी ही पृष्ठभूमि से आते हैं जैसी पृष्ठभूमि से माओवादियों के लड़ाके आते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों में कोई ख़ास अंतर आपको नहीं दिखेगा। फिर इन जवानों की हत्या का क्या मतलब है? कुछ दिनों पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा “ये माओवादी हैं जिन्होंने राज्य को दुश्मन और संघर्ष को युद्ध का नाम दिया है। हमने इस शब्द का कभी इस्तेमाल नहीं किया। ऐसे लोगों ने राज्य पर युद्ध थोपा है जिनके पास हथियार रखने और मारने का कानूनी अधिकार नहीं है।” चिदंबरम साहब ने जब दंतेवाड़ा हमले की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की तो एक सुर में आवाज आई कि ये वक्त इस्तीफा देने का नहीं संघर्ष करने का है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नक्सली समस्या को सबसे बड़ी चुनौती बता चुके हैं। अगर मोटे पर देखा जाए तो हिंदुस्तान के 630 जिलों में से 180 नक्सलियों के शिकंजे में हैं। हिंदुस्तान में कई लालगढ़ तैयार हो चुके हैं। सबसे पहले बात छत्तीसगढ़ की। यहां के बस्तर, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, राजनांदगांव आदि के करीब 2300 से अधिक गांवों पर नक्सलियों का प्रभाव है। बस्तर में 300 गांव ऐसे हैं जहां कुछ वर्षों से न तो कोई पुलिस अधिकारी गया और न हीं प्रशासन का। यहां के तेरह हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अपनी हुकूमत नक्सली चला रहे हैं। छत्तीसगढ़ का अबूझमाढ़ इलाका इनका सबसे सुरक्षित ठिकाना है। करीब चार हज़ार किलोमीटर में फैला ये इलाका सुरक्षाबलों के लिए चक्रव्यूह की तरह है। इसके भीतर की स्थिति ये है कि यहां के 50 गांवों का अब तक कोई सर्वे नहीं हुआ है। 10 साल से इलाके में पुलिस के जवानों ने कदम तक नहीं रखा है। यहां सैकड़ों पुलिसवाले नक्सलियों की गोलियों का शिकार हुए हैं। आलम यह है कि कई थाना क्षेत्रों में नक्सलियों से बचने के लिए पुलिस के जवान सिविल ड्रेस में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बाद उससे सटे झारखंड का नंबर आता है। यहां के 24 में से 18 जिलों में नक्सलियों का दबदबा है। यहां तक की राजधानी रांची पर भी नक्सलियों का प्रभाव है। इस इलाके में नक्सलियों के मुख्य कमांडर हैं गणपति और किसन। वेंकटेश्वर राव उर्फ किसन और गणपति नक्सलियों की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। आंध्र प्रदेश का रहनेवाल किसन फर्राटे से अंग्रेजी बोलता है। साथ ही दूसरी भाषाओं मसलन हिंदी, बांग्ला, उड़िया सहित कई भाषाओं का जानकार है। मीडिया से बातचीत भी अक्सर किसन ही करता है। वहीं, बांगाल का रहनेवाला गणपति क्षेत्र विस्तार, भविष्य की योजनाएं तैयार करना, दूसरे राज्यों के नक्सलियों से संपर्क और ऑपरेशन का आइडिया देने का काम करता है। आंधप्रदेश के करीमनगर, वारंगल, नालमला, पालनाडु और उत्तरी तेलंगाना में लाल आतंक पसरा हुआ है। वहीं, उड़ीसा से लगती सीमा पर इनकी गतिविधियां और प्रभाव काफी अधिक हैं। उड़ीसा के 17 जिले नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित हैं। महाराष्ट्र में भी एक अनुमान के मुताबिक 15 से 29 तक गुरिल्ला संगठन सक्रिय हैं। बिहार के 38 में से 34 जिलों में नक्सलियों का कम-ज्यादा असर है। करीब 150 प्रखंडों में उनकी जन अदालतें लगती हैं। बिहार के माओवादियों के नेपाली माओवादियों से रिश्तों के सबूत मिले हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुड़ा के करीब 350 गांव लाल आतंक की चपेट में हैं। कई गांवों में तो पुलिस का पहुंचना तक मुश्किल है। यूपी के सोनभद्र, चंदौली और मिर्जापुर जिले के करीब 600 गांवों पर नक्सलियों का साया है। अगर मध्यप्रदेश की बात की जाए तो बालाघाट क्षेत्र के करीब तीन हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 100 गांवों में लाल झंडा दिखाई देता है। देश के भीतर न जाने ऐसे कितने और लालगढ़ बनाने की कोशिशें की जा रही हैं। इन इलाकों में नक्सली अपनी हुकूमत चलाते हैं। अपनी अदालत लगाते हैं। फटाफट सबके सामने फैसले करते हैं। वहां रहनेवाले लोगों के मन में राज्य के खिलाफ जहर भरते हैं। सरकार से लोहा लेने के लिए लड़ाकों की भर्ती करते हैं और उनका तनख्वाह भी देते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर ये दूसरी हिंसक व्यवस्था को जगह कैसे मिली? लोकतंत्र दुनिया के सबसे अधिका शासन प्रणाली इसलिए माना जाता हैं क्योंकि इसमें समाज के सबसे कमजोर आदमी का भी पक्ष लिया जाता है। उसकी सरकार बनाने में भागीदारी होती है। लेकिन बंदूक और गोलियों के बल पर हिंदुस्तान में पैदा हो रहे लालगढ़ को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।
Wednesday, April 7, 2010
ड्रामा अच्छा था...मजा आया !
करीब हफ्ते भर चले तमाशे ने मेरा जम कर मनोरंजन किया। मजा आ गया...लेकिन इस ड्रामे का आपने कितना मजा लिया? जी हां, शोएब मलिक-आएशा सिद्दीकी और सानिया का ड्रामा। शोएब पाकिस्तानी क्रिकेटर है और सानिया मिर्जा भारतीय टेनिस खिलाड़ी। आएशा सिद्दीकी हैदराबाद की एक लड़की। नाटक का पहला दृश्य शुरू होता है सानिया और शोएब के निकाह की ख़बर के साथ। न्यूज़ चैनलों पर दोनों के निकाह की ख़बर...कोई इन ख़बरों की पुष्टि के लिए तैयार नहीं। भारतीय न्यूज़ चैनल पाकिस्तानी चैनलों की ख़बरों पर नज़रें बनाए हुए थे...और भारतीय चैनल पाकिस्तानी चैनलों पर। दोनों देशों के संवाददाता ख़बरों को मामा-चाचा, जीजा-साला, पास-पड़ोस के सहारे आगे बढ़ा रहे थे। अगले दिन सानिया मिर्जा ने हैदराबाद में मिठाई बांटकर पत्रकारों से शोएब मलिक के साथ निकाह का ऐलान कर दिया। इसके बाद पाकिस्तान के सियालकोट यानी शोएब के पुस्तैनी घर के बाहर जमकर जश्न दिखा...वैसा ही जश्न जैसा शादियों में दिखता है...क्रिकेट और टेनिस के मिलन को लेकर प्रतिक्रिया लेने और देने का काम तेजी से शुरू हो गया। पाकिस्तान के बड़े अख़बार ने शोएब मलिक की मां के हवाले से लिखा कि सानिया के छोटे कपड़े उनकी सास यानी शोएब की अम्मा को पसंद नहीं हैं। वो नहीं चाहतीं कि शादी के बाद सानिया टेनिस खेले। पाकिस्तान टेनिस एशोसिएशन के एक बड़े अधिकारी ने कहा कि सानिया को अब पाकिस्तान की तरफ से खेलना चाहिए...वहीं के एक और अधिकारी ने उन्हें कोच बनाने का मशवरा दिया। यहां तक की उनके लिए एक पाकिस्तानी टेनिस पार्टनर का नाम भी सामने आ गया। जंग आर-पार की हो गई। सानिया भारत की या पाकिस्तान की। किस तरफ से खेलेंगी सानिया। उनकी कैंप पर तिरंगा होगा या चांद सितारा? सब अपनी-अपनी दलील दे रहे थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ इसे भारत-पाक रिश्तों में एक नए अध्याय के रुप में देख रहे थे। इधर भारतीय राजनीतिक पार्टियां भी अपनी-अपनी राय दे रही थीं। कोई ये तर्क दे रहा था कि जब एक पाकिस्तानी से शादी कर लिया तो ऐसे में वो टेनिस में भारत का नेतृत्व कैसे कर सकती हैं? सानिया पर आर-पार की जंग चल ही रही थी कि अचानक आएशा सिद्दीकी ने एंट्री ले ली। हैदराबाद की रहनेवाली आएशा ने दावा किया की शोएब से उनका निकाह कई साल पहले हो चुका है...उनके पास सबूत भी हैं। कहानी में एकाएक नया मोड़...अब सानिया-शोएब और ‘वो’ की बात होने लगी। शोएब के पुराने बयान खोजे जाने लगे...पता चला शोएब ने कई साल पहले ही खुद को हैदराबाद का दामाद बताया था...लेकिन किसी का नाम नहीं लिया। न्यूज़ चैनलों ने अपने तेज-तर्रार रिपोर्टरों को हैदराबाद भेजा...शोएब और आएशा के रिश्तों का पोस्टमार्टम शुरू हो गया। इसी बीच शोएब के मुंह से आएशा का नाम भी एक पुराने इंटरव्यू में निकल आया। आएशा के परिवारवाले चीख-चीख कर कहने लगे उनके साथ धोखा हुआ है। शोएब ने उनकी बेटी को धोखा दिया है। उधर, शोएब के रिश्तेदारों ने ऐसे किसी भी निकाह से साफ इनकार कर दिया। इसी बीच आएशा और शोएब की शादी का निकाहनामा भी न्यूज़ चैनलों पर आ गया...दोनों देशों के मुस्लिम विद्वान निकाहनामे का मतलब और आगे की रणनीति बताने लगे। इसी बीच सानिया और शोएब की शादी की तारीख का भी ऐलान हो गया। मामला कोर्ट-कचहरी में ले जाने की बात चलने लगी। सिद्दीकी दंपत्ति के साथ-साथ अब आएशा भी फोन पर न्यूज़ चैनलों के माध्यम से अपनी बात रखने लगीं। हर गली-मुहल्ले में कौन सच्चा...कौन झूठा को लेकर बाज़ार गर्म हो गया। कुछ लोग ये भी कहते नज़र आए कि ऐसे में सानिया पर क्या बीत रही होगी? इसी बीच शोएब मलिक सीधे दुबई से हैदराबाद या कहें अपनी होनेवाली ससुराल पहुंचते हैं। घर में क्या बातें होती हैं? किसी को पता नहीं। न्यूज़ चैनलों के कैमरे वगैर पलक झपकाए शोएब और सानिया के घर के भीतर की तस्वीरें कैद करने के लिए चौकस थे। पहली ख़ास तस्वीर बालकनी की कैद होती है जिसमें सानिया कुछ नाराज़ सी दिखती हैं...उनकी मां उन्हें कुछ समझाने की कोशिश करती हैं...बगल में शोएब खड़े हैं। ये तस्वीर घर के भीतर तनाव की थ्योरी देती है। शाम में कमरे का दरवाजा थोड़ा सा खुलता है और फिर बंद हो जाता है। इसमें शोएब और सानिया दिखते हैं...मतलब निकाला जाता है कि दोनों डांस कर रहे हैं। घर के भीतर शादी का जश्न मनाया जा रहा है। न्यूज़ चैनलों के रिपोर्टर अपनी-अपनी सेटिंग के हिसाब के ख़बरें निकाल रहे हैं...और दोनों देशों की जनता तक हैदराबाद में चल रही हर हलचल की ख़बर पहुंच रही है। अगले दिन शोएब और सानिया पहली बार मीडिया के सामने एक साथ सीना ताने आते हैं और कहते हैं- आएशा झूठी है...कोई निकाह नहीं हुआ...अगर वो सच्ची है तो सामने क्यों नहीं आती? सानिया ने भी कहा- मैं जानती हूं..सच क्या है। ये बात आएशा के परिवारवालों को हज़म नहीं हुई। पुलिस में केस दर्ज करवा दिया गया...शोएब का पासपोर्ट पुलिस ने जब्त कर लिया। इस पाकिस्तानी क्रिकेटर की गिरफ्तारी की बातें होने लगी। आएशा ने भी सबूत के तौर पर पुलिस को शोएब के कपड़े, फोटो, सीडी और न जाने क्या-क्या दिया। दोनों के साथ होटल में ठहरने और गर्भपात की बातें भी सामने आने लगीं। उधर, शोएब और सानिया की शादी होगी या नहीं इस पर करोड़ों का सट्टा लग गया। सानिया निकाह के वक्त गरारा पहनेंगी या शरारा इस पर पैसे लगने लगे। ये नाटक इतना हिट था की टीवी चैनलों पर देश का सबसे बड़ा नक्सली हमला भी हाशिए पर जाता दिखा...लेकिन ख़बर दिखानी मजबूरी थी क्योंकि 76 जवान शहीद हुए थे। इससे पहले देश ने इतना बड़ा नक्सली हमला पहले नहीं देखा था। अगले दिन, एकाएक ख़बर आई थी शोएब मलिक ने महा आएशा सिद्दीकी को तलाक दे दिया है। यानी उस महा सिद्दीकी को जिसे वो आपा कहते थे...जिसके साथ शादी की बात से मुकर रहे थे। उसे तलाक दे दिया और मुआवजा भी देने का ऐलान कर दिया। ये खेल हुआ दोनों ओर के मध्यस्थों की वजह से। एक मध्यस्थ ने तो यहां तक कहा कि आएशा हमारी बच्ची है हम उसके लिए अच्छा लड़का देख कर शादी कर देंगे। दूसरे मध्यस्थ ने कहा कि शोएब पर दबाव डाल कर तलाक के लिए जैसे-तैसे राजी करवाया गया। सबको अपनी वाह-वाही लुटनी है। इस बीच एक और ख़बर निकली की शोएब और सानिया का निकाह तो पहले ही दुबई में हो चुका है...अब तो बस औपचारिकता बाकी है। 15 अप्रैल को भोज-भात होगा। रिश्तों का पोस्टमार्टम करनेवाले रिपोर्टर अब 15 अप्रैल को बनने वाले पकवानों पर रिसर्च कर रहे हैं। कुछ दूल्हा-दुल्हन की पोशाक पर रिसर्च कर रहे हैं। आएशा खुश की तलाक मिल गया...शोएब खुश की फंसते-फंसते बचे...सानिया खुश की कोई मिल गया...आप भी खुश क्योंकि बिना टिकट का मनोरंजन हुआ। ऑल इज वेल।
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