Sunday, September 12, 2010

आज का अयोध्या

अयोध्या यानि भगवान राम की जन्मभूमि। अयोध्या यानि यूपी के फैजाबाद जिले का एक इलाका। अयोध्या यानि बाबरी मस्जिद। अयोध्या यानि भारतीय राजनीति सबसे गर्म मुद्दा। अयोध्या यानि करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का केंद्र। अयोध्या के जितने मायने निकाले जाए कम हैं। ये एक ऐसी नगरी है जिसे पहचान की जरुरत नहीं बस तर्क के हिसाब से उसे अपने सांचें में फिट कर लीजिए। 2010 में अयोध्या फिर रणभूमि में तब्दील होने लगा है। 24 सितंबर को इलाहाबाद हार्इकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले पर देश के हर छोटे-बड़े आदमी की नज़रें लगी हुई हैं। इस तारीख को अदालत फैसला देगी कि अयोध्या किसका ? दरअसल, बाबरी मस्जिद पर मालिकाना हक का मासला 1949 से अदालत में है।

भारतीय जनता पार्टी, विश्वहिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों का दावा है कि जिस जगह बाबरी मस्जिद थी वहां पहले मंदिर था जिसे तोड़कर मस्जिद बनाई गई । इन संगठनों का कहना है कि वह स्थान भगवान राम का जन्म स्थान है। दूसरी ओर मुस्लिम संगठनों का कहना है कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि वहां पहले मंदिर था। 1949 से लेकर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने तक जो भी हुआ वो पुलिस, सुरक्षा बलों और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुआ। मंदिर में ताला लगाने, नमाज़ पर पाबंदी, पूजा की इजाज़त जैसे तमाम फ़ैसले आज़ाद भारत के धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने लिए थे।

बीजेपी बाबरी मस्जिद विवाद के लिए तीन तरह के हल की बात करती है। एक, अदालत के फ़ैसले पर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। दूसरा, मुस्लिम समुदाय से बात की जाए और वे विवादित स्थल पर अपना दावा छोड़ दें। तीसरा, संसद में क़ानून बनाकर वहां राम मंदिर बना दिया जाए। अब 24 सितंबर को कोर्ट अपना फैसला देगी। फैसला चाहे जिसके पक्ष में हो तनाव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, अयोध्या में धारा 144 अभी से लगा दी गई है। कर्फ्यू की आशंका से वहां के लोगों ने अभी से राशन-पानी घरों में जमा करना शुरू कर दिया है क्योंकि यहां के लोगों के जहन में 1992 की यादें अभी ताजी हैं।

अयोध्या में मंदिरों के बाहर पूजा के लिए फूल-माला, अगरबत्ती जैसी चीजें बेचने का काम वहां का ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। कई मुस्लिम तो खड़ाऊ की दुकानों के मालिक भी हैं इसी तरह मस्जिदों के बाहर फूलों की चादर बेचने के काम में कई हिंदू जुटे हैं। ये अयोध्या के लोगों का स्थानीय प्रेम है जिसे शायद बाहरवाले नहीं समझ सकते। अयोध्या सिर्फ हिंदुओं की नगरी है ये कहना बिल्कुल गलत है। यहां मुस्लिम भी बड़ी संख्या में रहते हैं। सिर्फ़ अयोध्या में ही करीब 85 मस्जिदें मौजूद हैं और अधिकतर में अब भी नमाज़ अदा की जाती है। बहुत सी जगहों पर मंदिर और मस्जिद साथ- साथ हैं। अयोध्या की ऐतिहासिक औरंगज़ेबी मस्जिद के ठीक पीछे सीता राम निवास कुंज मंदिर भी है। इन दोनों के बीच सिर्फ एक दीवार है। आलमगीरी मस्जिद मुगल काल में बनी थी। वहां मस्जिद के पास एक दरगाह भी है। अयोध्या की हुनमान गढ़ी, आचार्यजी का मंदिर और उदासीन आश्रम के लिए तत्कालीन मुसलमान शासकों ने ज़मीन दी थी। हनुमान गढ़ी के निर्माण के लिए ज़मीन अवध के नवाब ने दी थी। शायद इसीलिए आज भी रोज़ाना एक मुसलमान फकीर को गढ़ी की ओर से कच्चा खाना दिया जाता है।

अयोध्या हमेशा से ही जंग का मैदान रहा है। लेकिन जब भी हालात तनावपूर्ण हुए यहां के आम आदमी ने हमेशा अमन के लिए दुआ मांगी। यहां के मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की ध्वनि साथ-साथ निकलते हैं। चाहे आज का अयोध्या हो या कल का...सत्ता के लिए सबने इसे लांचिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया है जिसकी आग में यहां का आम आदमी झुलसा है। जरुरत अयोध्या को समझने की है। उसके दर्द को महसूस करने की…आखिर आधुनिक विकास की बयार यहां भी बहनी चाहिए। यहां के लोगों तक उसके झोंके पहुंचने चाहिए। आस्था मन के भीतर होती है...प्रेम दिल के भीतर होता है...ये वगैर दिखाए और बताए भी अपने अराध्य तक पहुंच जाते हैं।

भगवान अब माफ भी करो !

दिल्ली पर इन दिनों इंद्र देव कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं। सुबह हो या शाम, रात हो या दिन कभी भी बरसने लगते हैं। इंद्र देवता की इस मेहरबानी से दिल्ली में अफसरों से लेकर आम आदमी तक सब परेशान हैं। अफसर इस लिए परेशान हैं क्योंकि कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों को फाइनल टच दिया जाना बाकी है और आम आदमी इस लिए परेशान है क्योंकि उसे बारिश की वजह से कहीं आने-जाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लंबे-लंबे ट्रैफिक जाम में उसे रोज घंटों गुजारने पड़ते हैं। हालत ये हो गई है कि बूंद-बूंद को तरसने वाली यमुना नदी भी राजधानी में कहर बरपा रही है। यमुना नदी दिल्ली में अपना 32 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ेगी या नहीं...ये कुदरत पर छोड़ दीजिए क्योंकि हमने यमुना के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है न कि उसने हमारे क्षेत्र में...नतीजा तो भुगतना होगा। कॉमनवेल्थ आयोजन समिति तो हर दिन इंद्र देव से यही प्रार्थना कर रही होगी कि प्रभू बहुत हुआ...अब शांत हो जाओ...
महाभारत काल में ब्रजवासियों को इंद्र के क्रोध का सामना करना पड़ा। इंद्र देव ने मूसलाधार बारिश से ब्रजवासियों को तहस-नहस करने का फैसला किया...तब भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा कर वहां के लोगों की रक्षा की। अगर इंद्र देव ऐसे ही बरसते रहे तो कॉमनवेल्थ गेम्स को कौन बचाएगा ? क्या चीन की तर्ज पर बादलों को आसमान में ही नष्ट या इधर-उधर करने की कोशिश की जाएगी ? या फिर स्टेडियम के ऊपर कोई गोवर्धननुमा इंतजाम किए जाएंगे ? वक्त बहुत कम बचा है ! लेकिन इतना भी कम नहीं कि कुछ किया ही न जा सके।
कॉमनवेलथ की जब भी बात आती है तो अक्सर राजीव गांधी के नेतृत्व में हुए एशियाड खेलों की चर्चा की जाती है। एशियाड खेल1982 यानि आज से करीब 28 साल पहले दिल्ली हुए थे। जिन लोगों ने उस दौर को देखा है उनका कहना है कि पूरी दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया गया था। कई नए स्टेडियम बनाए गए...सड़के बनीं और ये सब हुआ सिर्फ 2 साल के भीतर। उस समय भी स्टेडियम की छत के टपकने का एक मामला सामने आया। ये घटना खेल के उद्धाटन समारोह संपन्न होने के बाद की है। जैसे ही राजीव गांधी को स्टेडियम की छत टपकने की ख़बर मिली वो अपने दो साथियों अरुण नेहरू और अरुण सिंह के साथ स्टेडियम के लिए निकल पड़े। मूसलाधार बारिश जारी थी। अगले ही दिन जहां भारोत्तोलन प्रतियोगिता होनी थी वहां पानी भर गया। इस हालात से निपटना बड़ी चुनौती थी। देश की नाक का सवाल था। करीब एक हज़ार मजदूरों को आनन-फानन में बुलवाया गया। रात भर स्टेडियम को दुरुस्त करने का काम चलता रहा। राजीव गांधी अपने दोनों साथियों के साथ रात भर वहां मौजूद रहे। उस दिन उनकी मां और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्मदिन था। राजीव गांधी उस रात घर नहीं गए। ये एक जुनून था...एक जिम्मेदारी थी...एक चुनौती थी जिसे उन्होंने पूरा किया।
28 साल देश में इतना बड़ा खेल आयोजन हो रहा है। देश का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। नाक से लेकर पैसा तक। खेलों पर 28000 करोड़ रुपये (दिल्ली में बुनियादी सुविधाओं के विकास पर खर्च छोड़कर) खर्च हो रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक ऐसे खेल आयोजन से सिर्फ कुछ लोगों का फायदा होता है और बाकी लोग इसके कर्ज को दशकों तक झेलने के लिए मजबूर होते है। कॉमनवेल्थ गेम्स की कीमत दिल्ली के लोगों को अगले 20-25 वर्षों तक चुकानी होगी।

Sunday, September 5, 2010

बिहार का किंग कौन ?

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए रण सज चुका है और अब रणभेरी का सबको इंतजार है। अक्टूबर-नवंबर में होनेवाले चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने तैयारियां पहले से ही शुरू कर दी हैं। चुनाव का माहौल काफी पहले से बनाया जा रहा है। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में नई जान डालने के लिए राहुल गांधी ने पूरा जोर लगा दिया है। कितनी कामयाबी मिलेगी ये तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन दिलचस्प मुकाबला तो नीतीश और लालू के बीच है। एक के सामने अपना ताज बचाए रखने की चुनौती तो दूसरे के सामने अपना खोया ताज पाने की चुनौती। बिहार का सियासी गणित उतना आसान नहीं है जितना दूर से देखने पर लगता है। वहां की जनता ने अक्सर राजनीतिक पंडितों और पूर्वनुमान करने वालों को ठेंगा दिखाया है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ताल ठोंक कर अब तक बीजेपी से अलग हो गए होते, लेकिन सूबे की सियासत और मिजाज से वो अच्छी तरह से परिचित हैं। उन्हें पता है कि रण और रणनीति में मामूली गलती भी उन्हें बिहार की सत्ता से बेदखल कर देगी।

जेडीयू-बीजेपी की दोस्ती में कई बार ऐसा लगा कि चुनाव से पहले दरार आ जाएगी, लेकिन अब तक दोस्ताना कायम है। आरजेडी और एलजेपी ने भी हालात को देखते हुए हाथ मिला लिया। अब फैसला बिहार के लोगों को करना है कि उन्हें क्या चाहिए ? नीतीश के विकास की बयार बिहार के आम आदमी तक कितनी पहुंची है ? ये सिर्फ आंकड़ों और शहरों तक सीमित है या फिर आम-आदमी तक भी पहुंची है ? इसकी जांच का सही समय आ गया है। बिहार सरकार की मानें तो सूबे की कानून-व्यवस्था में गजब सुधार हुआ है। पटना की सड़कों पर देर रात तक अब आराम से महिलाएं बगैर किसी डर के निकलती हैं। बिजली की हालत भी सुधरी है। सड़कें बनी हैं यानि अब विकास की पटरी पर बिहार दौड़ने लगा है। 2005 में बिहार में 23 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित थे। आज यह आंकड़ा महज 8 लाख है। छात्रों के प्राथमिक विद्यालय बीच में ही छोड़ देने की दर 36 फीसदी थी, पर आज यह 12 फीसदी है। 2005 में बिहार में स्कूलों की इमारतों की संख्या 49,000 थी, पर आज 61,000 हो गई है। साल 2005 में सिर्फ 8200 स्कूलों के पास लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था थी, लेकिन आज ऐसे स्कूलों की संख्या 23,200 हो गई है। साक्षरता के मामले में देशव्यापी आंकड़ा 64 फीसदी का है, लेकिन बिहार में यह सिर्फ 47 फीसदी पर है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 53.57 फीसदी है जबकि बिहार में महज 33 फीसदी। अच्छा है बिहार में कुछ तो बदल रहा है। ये आंकड़े नीतीश कुमार को विकास पुरुष तो साबित कर देते हैं लेकिन चुनाव फिर से जीता देंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। अगर गारंटी होती तो नीतीश बीजेपी के साथ अपने रिश्तों को बॉय-बॉय कर चुके होते, क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फोटो छपने पर उन्होंने जिस तरह से विरोध दर्ज करवाया उसका सियासी मतलब तो यही निकलता है। कहीं न कहीं उनके मन में डर है कि मोदी के कारण मुस्लिम वोट उनके पक्ष में नहीं आएगा यानि नीतीश को अपने विकास के एजेंडा पर उतना भरोसा नहीं है जितना मैदान के बाहर से कमेंट्री करनेवाले पत्रकारों और राजनीतिक विशलेषकों को है। बिहार में मतदान विकास के नाम पर होगा या समीकरणों के आधार पर ये तो मतदान के बाद पता चलेगा लेकिन यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि बिहार का पूरा जनमत नीतीश कुमार के साथ है।

नीतीश इंजीनियर रहे हैं और अब वो चुनाव के लिए विभिन्न जातियों की सोशल इंजीनियरिंग करने में लगे हुए हैं। सवर्ण यानी ऊंची जातियां हमेशा बीजेपी का वोट बैंक रही हैं लेकिन वो इस बार नीतीश से नाराज़ हैं यानी ये वोट बंट सकते हैं। नीतीश दलितों और महादलितों के वोट बैंक में सेंध लगाने का दावा कर रहे हैं लेकिन इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि लालू और रामविलास पासवान का वोट बैंक रहा ये समुदाय इतनी जल्दी नीतीश के साथ चला जाएगा। वैसे भी नीतीश कुर्मी और कोइरी यानी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और दलितों के शोषण में इस समुदाय का भी बड़ा हाथ रहा है। रही बात मुसलमानों की तो उन्हें नीतीश से फ़ायदा हुआ है। निचले और ग़रीब तबके के मुसलमान नीतीश के साथ हैं लेकिन पढ़े लिखे मध्यवर्गीय मुसलमान नीतीश से काफ़ी नाराज़ हैं। बिहार के किंग का फैसला करने में मुस्लिम वोट काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस वोट बैंक को न तो कोई हाथ से जाने देना चाहता है और न ही किसी ओर सेंध लगाने। चुनावों से पहले माहौल बनाने में भी इस वर्ग का बड़ा हाथ रहता है। शहरों में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बेहतर होने के कारण शहरी मतदाता भले ही नीतीश के साथ हो जाए लेकिन बिहार का किंग बनाने के लिए काफी नहीं है। लालू-पासवान पिछले पांच साल से बिहार में सत्ता से बाहर हैं उनके पास नीतीश पर हमला बोलने के लिए पूरा मौका है, जिसका वो पूरा फायदा उठाएंगे। बिहार में वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस अपने बूते सरकार तो नहीं ही बना सकती है लेकिन अगर मुस्लिम और दलित वो बैंकों में सेंध लगाए तो खेल बिगाड़ने की स्थिति में आ ही सकती है। इसका नमूना पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान साफ-साफ दिखा। देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के लोग इस बार सत्ता किसे सौंपते हैं? विकास का या फिर जातिगत जोड़तोड़ को...