Thursday, May 6, 2010

आतंक को फांसी दो...

न्यूयॉक के टाइम्स स्क्वायर को दहलाने की साजिश के तार भी पाकिस्तान से जुड़े। इस मामले जिस फैजल शहजाद को गिरफ्तार किया गया है वह मूल रुप से पाकिस्तान का रहनेवाला है। फैजल के पिता सेवानिवृत्त वाइस एयर मार्शल हैं जिन्हें पाकिस्तान में विशेष दर्जा मिला हुआ है। फिलहाल फैजल के आतंकी कनेक्शन की कुंडली निकालने में अमेरिकी अधिकारियों की टीम लगी हुई है। अमेरिका से पाकिस्तान तक उसके कनेक्शन का पोस्टमार्टम चल रहा है। फैजल अमेरिका में पढ़ा लिखा है। वहां की नागरिकता भी ले चुका है। वहां की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में बड़े ओहदे पर काम भी कर चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि एक होनहार नौजवान आखिर आतंकी क्यों बना? उसने आतंक का रास्ता क्यों चुना ? ऐसे कई सवाल हैं जिनका सही-सही उत्तर पूरी दुनिया को जानना है। क्योंकि ये मामला सिर्फ फैजल शहजाद का नहीं पूरी दुनिया में तैयार हो रहे हज़ारों फैजल शहजाद का है। विदेशी मामलों के स्तंभकार अरनोड डी बॉर्शग्रेव ने अपने कॉलम में लिखा है, पाकिस्तान अब भी हर साल अपने 11 हजार मदरसों के पांच लाख स्त्रातकों में से करीब दस हजार जिहादियों को पैदा कर रहा है जिनमें से अधिकतर की उम्र 16 साल है। उन्होंने लिखा है, ये जिहादी मानते हैं कि इस्लाम के दुश्मन यानि अमेरिका, भारत और इजरायल इस्लाम के पहरूओं को पीछे हटाना चाहते हैं और मुस्लिम देशों को परमाणु हथियार से वंचित रखना चाहते हैं। बोर्शग्रेव का कहना है कि पाकिस्तानी अमेरिका को अपना सबसे बडा दुश्मन नहीं मानते, बल्कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी द्वारा पैदा किया गया आतंकी संगठन तालिबान आम जनता का सबसे बडा दुश्मन है। 26/11 हमले के बाद जब पुलिस ने आमिर अजमल कसाब को जिंदा पकड़ा तो तर्क ये दिया गया कि गरीबी ने उसे आतंकी बना दिया। उसकी कम शिक्षा ने उसे आतंक की राह पकड़ा दी। फैजल के बारे में भी कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गई और वो बेरोजगार हो गया। उस पर कर्ज काफी था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था और मजबूरी में उसने आतंक का दामन थाम लिया। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि ज्यादातर पाकिस्तानी मूल के नागरिक ही आतंक की राह क्यों पकड़ते हैं? वहां की आबोहवा में ऐसी क्या ख़ास बात है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में हुए आतंकी हमलों के तार वहीं से जुड़ जाते हैं। पाकिस्तानी आतंक फैक्ट्री से निकले जिहादी ही दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में क्यों पकड़े जाते हैं? क्या वहां की सामाजिक व्यवस्था आतंकियों को सम्मान देती है जिसकी इच्छा हर आम और ख़ास को होती है? क्या वहां की व्यवस्था में आतंक और जेहाद को वो सम्मान हासिल है जो और कहीं नहीं मिलता? या फिर पाकिस्तान में शोहरत, सम्मान और दौलत पाने का ये सबसे आसान तरीका आतंक ही है ? अब बड़ा सवाल ये है कि आतंकी चाहते क्या हैं? मुझे लगता है कि वो सुर्खियां चाहते हैं और इन्हीं सुर्खियों के ऑक्सीजन के दम पर वो जिंदा है। अमेरिका में हुए 9/11 ने ओसामा-बिन-लादेन को आंतक की दुनिया में हीरो बना दिया। अंतराष्ट्रीय मंच पर होनेवाली ज्यादातर बैठकों का एजेंडा ओसामा, अलकायदा और आतंक हो गया। हमला अमेरिका पर हुआ था यानि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश पर तो अंजाम तो कुछ-न-कुछ होना था। तालिबान की ईंट से ईंट बजा दी गई लेकिन न तो ओसामा हाथ आया और न ही अलकायदा का खात्मा हुआ। करीब 10 साल होनेवाले हैं अब भी अफगानिस्तान में जंग खत्म नहीं हुई। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के मुंह से हमेशा ओसामा को खत्म करेंगे निकलता रहता है। जब आतंकी घटना की बसरी मनाई जा रही होती हैं तो मौन हो कर अपनों को श्रद्धांजलि दे रहे होते हैं तो उन तस्वीरों को देखकर आतंकियों का हौसला बढ़ता है। जब हम रो रहे होते हैं तो वो हंसते हैं। क्योंकि हम पर चोट...उनकी जीत होती है। जितनी बार दुनिया ओसामा का नाम लेती है वो उतना ही मजबूत होता जाता है। यही बात दूसरे आतंकियों और आतंकी संगठनों पर भी लागू होती है। मुंबई पर हुए 26/11 हमले ने जिंदा पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को पाकिस्तान के भीतर चल रहे आतंकी कैंपों में हीरो बना दिया और उसके मारे गए साथियों को शहीद। वहां इनकी मिसाल दी जाती होगी। और इन सब की वजह है सुर्खियां। आतंक को भाव देकर... उसके प्रति ज्यादा सर्तकता का इजहार कर हम अपनी ही कमजोरी को दिखाते हैं। वक्त पुरानी आतंकी घटनाओं को याद करने...उन पर आंसू बहाने का नहीं। आतंक को वगैर सुर्खियां दिए कुचलने का है। किसी आतंकी को शहीद और हीरो बनाने का नहीं...आतंक का ऑक्सीजन काटकर हमेशा के लिए आतंक के खात्मे का है। इसलिए आतंक के खिलाफ दुनिया की इस जंग हर आदमी सिपाही है और उसके मजूबत इरादे उसका हथियार।