एक समय कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों की जोड़ी हुआ करता था, उस वक्त विपक्षियों ने नारा दिया- 'दो बैलों की जोड़ी है, एक अंधा, एक कोढ़ी है'। तब विपक्ष के इस नारे की बड़ी चर्चा हुई...आलोचना हुई। इस लोकसभा चुनाव में अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने जैसे-जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया उसके बारे में क्या कहा जाए...ये वोटर ही बेहतर बता सकता है। शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए अपशब्द का इस्तेमाल किया। जवाब में कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा कि अगर हम गांधीवादी नहीं होते तो उनकी जुबान खींच लेते। कुछ नेताओं ने तो ऐसे-ऐसे बयान दिए जिसे दुबारा जुबान पर लाते हुए लज्जा आती है। लेकिन इन नेताओं ने वगैर किसी हिचक के ये बाते जनता के बीच कही... मीडिया की मौजूदगी में कहीं। कोई किसी को पप्पी-झप्पी देने की बात कर रहा है...कोई किसी को हिजड़ा बता रहा है...कोई अफजल गुरु को किसी का दामाद बता कर सवाल पूछ रहा है। नेताओं की ये जुबानी जंग न्यूज़ चैनलों के माध्यम से पूरे देश के घर-घर पहुंची। अब जनता को तय करना है कि वो इसे कितना गंभीरता से लेती है। सब कुछ वक्त के साथ बदल गया है। सारी शालिनता और मर्यादा अरब सागर में डूब चुकी है। कांग्रेस को जब चुनाव चिन्ह के रुप में हाथ मिला तो विपक्षियों ने पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ 'खूनी पंजा' कह कर प्रचार किया। तब कांग्रेस ने जवाबी नारा दिया 'जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर' वाकई मुहर हाथ पर लगी। 1977 में कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का जिस नारे ने काम किया वो था 'संपूर्ण क्रांति अब नारा है...भावी इतिहास तुम्हारा है'। वाकई कांग्रेस केंद्र से उखड़ी और जनता पार्टी की सरकार बनी। जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था। जनता पार्टी सरकार की नाकामी गिनाने के लिए कांग्रेस लोगों के बीच जिस नारे के साथ गई वो था-'क्या हुआ जी, क्या हुआ, चूहा बत्ती ले गया, इस दीपक में तेल नहीं, सरकार चलाना खेल नहीं' इसी नारे के सहारे कांग्रेस की दुबारा दिल्ली के तख्त पर वापसी हुई। इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने जब मारुती का कारखाना लगाने की ठानी तो विरोधियों ने एक सुर में कहा- 'बेटा कार बनाता है...मां बेकार बनाती है'। कांग्रेसी राज में महंगाई के मुद्दे पर सोशलिस्टों ने नारा दिया- 'खा गई राशन पी गई तेल, यह देखो इंदिरा का खेल'। इस नारे का असर ऐसा हुआ कि कांग्रेस को जवाबी नारा देना पड़ा 'गरीबी हटाओ'। 1980 के दशक में चुनाव के दौरान कांग्रेस ने नारा दिया 'इंदिरा लाओ, देश बचाओ'। इंदिरा गांधी के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कांग्रेस ने कहा- 'इक्कीसवीं सदी में जाना है, कांग्रेस को जिताना है'। 90के दशक में जब मंडल की हवा चली तो उस वक्त जिस नारे ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया वो था- 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है'। मंडल के गुब्बारे की जिस नारे ने हवा निकाली वो था- 'राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे' और 'बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का'। अब वक्त बदलने लगा था संसदीय राजनीति का मिजाज बदलने लगा था। क्षेत्रीय पार्टियां अब राष्ट्रीय राजनीति में दिखने लगी थी और दिल्ली से इनकी दूरी कम होने लगी थी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ने नारा दिया- 'जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू'...बिहार में आरजेडी , यूपी में बीएसपी और एसपी, पंजाब में अकाली, आंध्रप्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडू में एआईडीएमके और डीएमके, पश्चिम बंगाल और केरल में लेफ्ट, उड़ीसा में बीजेडी, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना यही पार्टियां अपने सीमित दायरे से निकल कर अब दिल्ली की सरकार बनाने में अहम रोल निभा रही हैं। क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा जैसे-जैसे फैल रहा है वैसे-वैसे कांग्रेस और बीजेपी का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। यही फैलाव और सिकुड़न राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारा से धीरे-धीरे विचार को गायब कर रहा है। अब विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण सरकार बनाना और उसे बचाए रखने की चुनौती है। ऐसे में कब किसका हाथ
पकड़ना और छोड़ना पड़ जाए कोई नहीं जानता। इसलिए आज की राजनीति में कोई अपने आप को किसी विचारधारा के दायरे में बांधना नहीं चाहता। यही वजह है कि अब चुनाव में न तो मुद्दों का पता चल पा रहा हैं...न हीं नारों का। ऐसे में विचारधारा को राजनीतिक पार्टियां एक मुखौटे के रुप में इस्तेमाल कर रही हैं।
Tuesday, April 21, 2009
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